कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

आतंकी हमले- अब कहानियों को हकीकत में बदलने का वक्त है मोदी जी

लोकतंत्र के उत्सव में खलल डालने के लिए आतंकियों के नापाक मंसूबे बयां करने के लिए काफी है कि उनकी बौखलाहट किस कदर उबाल मार रही है। कश्मीर में एक के बाद एक चार आतंकी हमले जम्मू कश्मीर के विधानसभा चुनावों में खलल डालने की नापाक कोशिश से ज्यादा और कुछ नहीं है। पहले दो चरण में 25 नवंबर और दो दिसंबर को जम्मू कश्मीर में बंपर मतदान के बाद आतंक के आकाओं की बौखलाहट किसी रूप में तो सामने आनी ही थी। ऐसे में आतंकी हमलों के जरिए कश्मीर के वाशिंदों में खौफ पैदा करने के लिए एक के बाद हमले कर आतंकियों ने अपने मंसूबे जाहिर कर दिए हैं कि वे कश्मीर में किसी भी हाल में शांतिपूर्व चुनाव नहीं चाहते हैं। जांबाज सुरक्षाकर्मियों ने भले ही 6 आतंकियों को मौत के घाट उतार दिया हो, लेकिन इस हमले में 11 सुरक्षाकर्मी भी शहीद हो गए। दिल्ली में बैठकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर गृहमंत्री राजनाथ सिंह और रक्षा मंत्री मनोहर पारिकर तक भले ही आतंकियों को करारा जवाब देने की बात कर रहे हों, लेकिन सवाल ये उठता है कि 12 घंटे में चार आतंकी हमलों के बाद क्या अब भी सिर्फ बातों से ही काम चलेगा ? वो कहते भी हैं कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते हैं, ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि इनसे कैसे निबटा जाए ?
जाहिर है जब तक आतंकियों के पनाह देने वालों को ये एहसास नहीं होगा कि उनको इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है, तब तक आतंक के आका सुरक्षित ठिकानों में बैठकर आत्मघाती हमलावरों के जरिए भारत की शांति को भंग करने की नाकाम कोशिश में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे ! इसलिए अब जरूरी है कि देश के दुश्मनों को करारा जवाब दिया जाए।
अब जरूरत है कि आतंकियों तो खत्म करने की कहानियां सुनाकर सत्ता का रास्ता आसान करने वाली भारतीय जनता पार्टी अब सत्ता में है, तो इन कहानियों को हकीकत में बदले। हमारे प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, रक्षामंत्री अब सिर्फ बातें न करें बल्कि आतंक के आकाओं में मौत का वो खौफ पैदा करें कि वे भारत की तरफ आंख उठाने से पहले हजार बार सोचे ! आतंक के पनाहगारों को ये एहसास हो कि भारत के इरादे फौलादी हैं और भारत की तोपों में भी इतना बारूद है कि वो उनका नामो निशान मिटा सकते हैं !   
अमेरिका ने पाकिस्तान में घुसकर ओसामा बिन लादेन की कहानी का अंत कर एक उदाहरण दुनिया के सामने पेश किया था कि वो अपनी धरती को खून से लाल करने वालों को किसी सूरत में नहीं बख्शेगा ! लेकिन सवाल ये है कि क्या मोदी सरकार ये साहस जुटा पाएगी ?


deepaktiwari555@gmail.com

गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

जनता परिवार- डर के आगे ही जीत है !

डर के आगे ही जीत है, आम चुनाव के बाद कई राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में कमल खिलने के बाद मुलायम सिंह, लालू, नीतिश और देवीगौड़ा समेत तमाम उन नेताओं ने ये मान ही लिया लगता है। मुलायम के दिल्ली दरबार में हुई बैठक में हाथों में हाथ डालकर जिस तरह ये नेता बैठे थे, उससे तो यही लगता है कि ये मान चुके हैं कि अकेले दम पर ये केन्द्र के बाद एक एक कर राज्यों में खिलते कमल को रोक नहीं सकते !
सत्ता की महत्वकांक्षा मुलायम से लेकर लालू, नीतिश, देवीगौड़ा समेत तमाम इन नेताओं में थी, शायद इसलिए ही इनकी राहें समय के साथ या यूं कहें कि मौका मिलने के साथ साथ अलग होती गईं। सत्ता का सुख लगभग सबने अपने अपने हिस्से का भोगा भी, लेकिन मोदी की आंधी में इनके राजनीतिक भविष्य का दिया अब टिमटिमाने लगा है, इसका एहसास भी इनको जल्दी ही हो गया इसलिए ही अब आगे के लड़ाई अकेले अकेले लड़ने की ताकत शायद इनमें नहीं बची है !
करीब साल भर बाद बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं, तो ढ़ाई साल बाद यूपी का नंबर है, जाहिर है राजनीति की तेजी से बदलती तस्वीर ने इन राजनीतिक सूरमाओं को सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर कैसे अपनी राजनीतिक जमीन को खिसकने से बचाया जा सके। मोदी के खिलाफ साथ मिलकर लड़ने के अलावा शायद इनके पास कोई दूसरा रास्ता बचा भी नहीं था। साथ आने के ऐलान भी इन्होंने कर ही दिया है, लेकिन इनका ये समाजवादी जनता परिवार का फार्मूला जनता को कितना भाएगा ये तो चुनावी नतीजे ही तय करेंगे!
सबसे अहम सवाल तो ये है कि क्या साथ मिलकर भाजपा को रोकने का सपना देखने वाले इन राजनीतिक सूरमाओं की व्यक्तिगत महत्वकांक्षाएं एक बार फिर से इनके आड़े नहीं आएंगी ?
क्या किसी एक को ये अपना सर्वोच्च नेता मान पाएंगे और मान पाएंगे तो क्या वर्तमान में कैमरे के सामने दिखाई दे रही इनकी एकजुटता लंबे समय तक या सत्ता के करीब पहुंचने पर कायम रह पाएगी ?
जाहिर है, जिन नेताओं की राहें सत्ता की महत्वकांक्षा के लिए अलग हुई हों, उनका फिर से अपनी राजनीतिक जमीन बचाने के लिए साथ आना तो समझ में आता है, लेकिन फिर से इनकी राहें जुदा नहीं होंगी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता !
बहरहाल इन नेताओं की जुगलबंदी भविष्य में क्या गुल खिलाएगी, ये तो वक्त ही बताएगा, लेकिन कल तक एक दूसरे को फूटी आंख न सुहाने वाले नेताओं का साथ आना ये बताने के लिए काफी है कि मोदी की आंधी के आगे इनका डर अब धीरे धीरे बढ़ने लगा है, साथ ही इन नेताओं का ये विश्वास भी कि डर के आगे ही जीत है और इस जीत के लिए जरूरी है राजनीतिक मोर्चाबंदी की जिसकी कवायद इन्होंने शुरु कर दी है !


deepaktiwari555@gmail.com

बुधवार, 3 दिसंबर 2014

भोपाल गैस त्रासदी- 30 साल बाद भी नहीं मिला इंसाफ !

दुनिया के नक्शे पर झीलों की नगरी भोपाल किसी पहचान की मोहताज नहीं है, लेकिन अफसोस ये पहचान ऐसी है, जिसके बारे में सोचकर आज भी रूह कांप उठती है। दुनिया की सबसे भीषण रसायनिक त्रासदी का गवाह बना झीलों का शहर 2-3 दिसंबर 1983 की सर्द रात को पलभर में ही श्मशान में तब्दील हो गया। यूनियन कार्बाईड कारखाने से निकली जहरीली गैस मिथाइल आईसो-सायनाईट ने पलभर में ही हजारों जिंदगियां लील ली। हजारों लोगों को गहरी नींद में ही मौत ने अपने आगोश में ले लिया तो कुछ जान बचाकर बदहवाश से भागे जा रहे थे। किसी को नहीं पता था कि किस दिशा में भागकर अपनी जान बचानी है, लेकिन हर कोई इस घुटन, बेचैनी से दूर भाग जाना चाहता था, जिनकी किस्मत अच्छी थी वो तो बच गए लेकिन अफसोस हर कोई इतना खुशकिस्मत नहीं था।
किस्मत तो इस गैस के प्रभाव में आकर जीवित बचने वालों की भी इतनी अच्छी नहीं थी, क्योंकि उनकी सांसें भले ही न थमी हो लेकिन वे कई तरह की गंभीर बीमारियों का शिकार हो गए। उनके लिए जिंदा रहना किसी श्राप की तरह हो गया था। कुछ ने कुछ सालों के अंतराल में दम तोड़ दिया तो कुछ आज भी इसका दंश झेल रहे हैं। सब कुछ यहीं थम जाता तो ठीक था लेकिन भोपाल की तीसरी पीढ़ी पर भी इसका असर देखा जा रहा है, जो ये बयां करने के लिए काफी है कि 2-3 दिसंबर की रात इस जहरीली गैस ने मौत का कैसा तांडव मचाया होगा।
भोपाल से मेरा तो सीधा तौर पर कोई ताल्लुक नहीं था, बचपन में स्कूली किताबों में भोपाल गैस त्रासदी की याद में बने स्मारक की तस्वीर जेहन में बसी हुई थी। 2008 में जब भोपाल में काम करने का मौका मिला तो स्कूली किताब में छपी वो स्मारक की तस्वीर आंखों के सामने थी। गैस पीड़ित बस्तियां और उसमें बसे लोगों के हालात बताने के लिए काफी थे कि 24 सालों में भोपाल गैस त्रासदी पीड़ितों को उनका हक नहीं मिल पाया था। सरकारी इमदाद में हालांकि कोई कमी नहीं थी, लेकिन वास्तविक हकदार खाली हाथ थे। कुछ ऐसी ही स्थिति गैस पीड़ितों के लिए बनाए गए अस्पतालों की भी थी। अस्पताल की इमारतें तो बुलंद थी लेकिन सुविधाओं और दवाओं के नाम पर कुछ नहीं था।  
पीड़ा तब और भी बढ़ जाती है, जब इस त्रासदी का सबसे बड़ा गुनहगार, हजारों मौत का जिम्मेदार वारेन एंडरसन को सरकार उसके जीते जी सजा दिलाना तो दूर उसे गिरफ्तार तक नहीं कर पाई। ख़बरें तो ये भी थी कि तत्कालीन राज्य और केन्द्र सरकार ने ही उसे भोपाल से निकालकर सुरक्षित विदेश पहुंचाने में पूरी मदद की !
भोपाल की इस भीषण रसायनिक त्रासदी अब तीस वर्ष पूरे कर चुकी है, तो एक बार फिर से गैस पीड़ितों के जख्म हरे हो गए हैं। इस बार ये जख्म इसलिए भी ज्यादा तकलीफ दे रहे हैं क्योंकि इस त्रासदी का गुनहगार बिना सजा पाए ही आराम से अपनी हिस्से की जंदगी जी कर इस दुनिया को छोड़ चुका है, इसके साथ ही अधूरी रह गई है, गैस पीड़ितों के इंसाफ की लड़ाई !

deepaktiwari555@gmail.com