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शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

महाराष्ट्र - कायम रहेगा याराना !


हरियाणा की कहानी बीजेपी दोहराना तो महाराष्ट्र में भी चाहती थी, लेकिन शायद भाजपा नेताओं को समय रहते इस बात का भान हो गया कि महाराष्ट्र में शिवसेना से 25 साल पुराना याराना तोड़ कर अकेले दम पर कांग्रेस और एनसीपी के साथ ही शिवसेना का भी सामना करना, उसके महाराष्ट्र की सत्ता में काबिज होने के अरमानों पर पानी फेर सकता है। यही वजह है कि भाजपा ने साफ कर दिया है, कि वे शिवसेना के साथ अपनी 25 साल पुरानी दोस्ती में दरार आने के बावजूद उसे निभाएंगे और मिलकर आगामी विधानसभा चुनाव लड़ेंगे। भाजपा ये बात अच्छी तरह जानती है, कि शिवसेना से किनारा कर अकेले दम पर महाराष्ट्र की सत्ता में काबिज होना उसके बूते की बात नहीं है। ऐसे में भाजपा ने महाराष्ट्र में 15 साल से सत्ता में काबिज कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को सत्ता से बेदखल करने के लिए शिवसेना का दामन न छोड़ने का फैसला लिया है। हालांकि सीटों के बंटवारे की तकरार अभी जारी है, लेकिन अब भाजपा इस पर समझौता करने को तैयार दिखाई दे रही है। (पढ़ें - भाजपा - खुमारी अभी बाकी है !)
महाराष्ट्र का राजनीतिक इतिहास गवाह है कि महाराष्ट्र की सत्ता हासिल करने के लिए भाजपा ने अपने दम पर खूब कोशिश की लेकिन भाजपा खाली हाथ ही रही। 1995 में भाजपा ने शिवसेना के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। 1995 में 116 सीटों पर लड़ते हुए भाजपा ने 65 सीटों पर फतह हासिल की तो 169 सीटों पर लड़ने वाली शिवसेना ने 73 सीटों पर जीत दर्ज की। भाजपा की सरकार बनी और मनोहर जोशी महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री। लेकिन 1999 के चुनाव में भाजपा और शिवसेना का जादू नहीं चला और 117 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली भाजपा सिर्फ 56 सीटें जीत पाई तो शिवसेना 161 सीटों में महज 69 सीटों पर फतह हासिल कर पाई।
1999 में 75 सीटें जीतने वाली कांग्रेस ने 58 सीटें जीतने वाली एनसीपी से गठबंधन कर महाराष्ट्र में सरकार बना ली। 2004 में भी भाजपा और शिवसेना मिलकर सत्ता हासिल नहीं कर पाए। 111 सीटों पर लड़ने वाली भाजपा की सीटों की संख्या 54 पर ही सीमित रही तो शिवसेना 163 सीटों में से 62 सीटें ही हासिल कर पाई। जबकि 69 सीटें जीतकर कांग्रेस ने 71 सीटें जीतने वाली एनसीपी के साथ मिलकर एक बार फिर से सरकार बनाई। 2009 में भाजपा-शिवसेना को उम्मीद थी कि वे कांग्रेस-एनसीपी का 10 साल पुराना शासन खत्म कर महाराष्ट्र की सत्ता में काबिज होंगे लेकिन भाजपा की सीटों की संख्या घटकर 46 ही रह गई, तो शिवसेना भी 44 सीटों पर आकर सिमट गई। 82 सीटें जितने वाली कांग्रेस ने 62 सीटों पर फतह हासिल करने वाली एनसीपी के साथ मिलकर तीसरी बार महाराष्ट्र में सरकार बनाई।
भाजपा और शिवसेना मिलकर चुनाव लड़े तो 1995 में महाराष्ट्र की सत्ता हासिल की और उसके बाद बहुमत के जादुई आंकड़े के करीब पहुंचे जरूर लेकिन सीटों की संख्या इतनी नहीं थी कि वे सरकार बना सके। जाहिर है दोनों अलग-अलग चुनाव लड़ते तो शायद ही 1995 में सरकार बना पाते या कहें कि सरकार बनाने के बारे में सोच भी सकते।
2014 के आम चुनाव में महाराष्ट्र की 48 लोकसभा सीटों में भी भाजपा ने 23 तो शिवसेना ने 18 सीटों पर जीत हासिल की। दोनों ने मिलकर 48 में से 41 सीटें जीत ली तो जाहिर है विधानसभा चुनाव में भी जीत की उम्मीदें परवान चढ़ने लगी है। सीटों के बंटवारे के लिए इतना हंगामा यूं ही नहीं मचा है। जाहिर है, दोनों का मानना है कि जो ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ेगा, उसकी ही ज्यादा सीटें जीतने की संभावना है और उसका ही सीएम भी होगा, ऐसे में तकरार न हो, ये कैसे हो सकता है।
खैर, देर आए दुरुस्त आए, भाजपा और शिवसेना का गठबंधन न तोड़ने का फैसला दोनों की ही सेहत के लिए अच्छा ही रहेगा। इसका मतलब ये नहीं कि साथ मिलकर चुनाव लड़ने से भाजपा-शिवसेना गठबंधन महाराष्ट्र में सरकार बनाने में कामयाब हो जाएगी, क्योंकि बातें चाहे कोई कितनी ही कर ले लेकिन आखिरी फैसला तो महाराष्ट्र की ही जनता को करना है।


deepaktiwari555@gmail.com

गुरुवार, 18 सितंबर 2014

भाजपा - खुमारी अभी बाकी है !

      
सफलता पाना तो हर कोई चाहता है, लेकिन सफलता हजम हर किसी को नहीं होती। 16 मई को आम चुनाव के नतीजों के बाद भाजपा का भी कुछ ऐसा ही हाल है। उम्मीद से ज्यादा मिलने की खुशी शायद भाजपा भी नहीं पचा पा रही है। उम्मीदें आसमान छू रही हैं, उस पर जीत की खुमारी ऐसी चढ़ी है कि उतरने का नाम ही नहीं ले रही हैं। हरियाणा और महाराष्ट्र का चुनाव सामने है और अलग अलग राज्यों की 33 विधानसभा उपचुनाव में जनता का मिजाज नजर आ चुका है। लेकिन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की मानें तो हरियाणा और महाराष्ट्र की जीत, उपचुनाव के नतीजों का दर्द भुला देगी। लेकिन सवाल फिर वहीं खड़ा है कि कहीं ये अति आत्मविश्वास तो नहीं, क्योंकि उपचुनाव से पहले भी तो एकतरफा जीत के दावे किए जा रहे थे, जिसे जनता ने आईना दिखा दिया।
हरियाणा में चंद सीटों पर सिमट जाया करने वाली भाजपा को इस बार लगने लगा है कि वो अपने दम पर विजय पताका फहराएगी और हरियाणा में उसकी सरकार बनेगी। इसके लिए उसने अपनी सहयोगी हरियाणा जनहित कांग्रेस से तक किनारा कर लिया क्योंकि हजकां गठबंधन की पुरानी शर्तों के अनुसार चलने की बात कह रही थी, जबकि जीत की खुमारी में डूबी भाजपा अपने हिसाब से हजकां को कंट्रोल करना चाहती थी। नतीजा गठबंधन का बंधन टूट गया।
दूसरे चुनावी राज्य महाराष्ट्र में भी भाजपा इसी राह पर चलती दिखाई दे रही है। हो सकता है भाजपा और शिवसेना में सीटों के बंटवारे पर आपसी सहमति बन भी जाए लेकिन फिलहाल की स्थितियां और चुनाव की तारीख के ऐलान के बाद तक सीटों के बंटवारे को लेकर तकरार साफ कर रही है कि महाराष्ट्र में भी भाजपा को अपने दम पर जीत का भरोसा है और वह इसके लिए अपनी 25 साल पुरानी सहयोगी शिवसेना से भी किनारा करने से गुरेज नहीं करने वाली। दरअसल 2009 में 119 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली भाजपा इस बार 135 सीटों पर चुनाव लड़ने पर अड़ी है, लेकिन 2009 में 169 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली शिवसेना को ये मंजूर नहीं है। सवाल ये है कि ये स्थितियां निर्मित क्यों हुई..?
जाहिर है, 2014 के आम चुनाव में मोदी लहर पर सवार भाजपा की प्रचंड जीत इसका आधार बनी हैं, भाजपा का मानना है कि आम चुनाव में उसने महाराष्ट्र में 23 सीटें जीती जबकि शिवसेना 18 सीटों पर ही जीत दर्ज कर पाई, ऐसे में उसका प्रदर्शन महाराष्ट्र में शिवसेना से बेहतर रहा। ऐसे में उसका दावा कहीं से भी गलत नहीं है। लेकिन असल सवाल ये भी है कि क्या मोदी का ये करिश्मा हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव  में भी काम करेगा या फिर हाल ही में हुए अलग अलग राज्यों की 33 विधानसभा सीटों के उपचुनाव के नतीजों का अक्स इसमें भी नजर आएगा..?
हरियाणा में भाजपा-हजकां गठबंधन का बिखरना और महाराष्ट्र में भी भाजपा-शिवसेना के रास्ते अलग होने का संकेत तो कम से कम इसी ओर ईशारा कर रहा है कि भाजपा अति आत्मविश्वास से लबरेज है और उपचुनाव के नतीजों से भी शायद भाजपा सबक लेने को तैयार नहीं है। शाह को अभी भी भरोसा है कि महाराष्ट्र और हरियाणा में कांग्रेस को परास्त कर भाजपा भारी बहुमत से सरकार बनाएगी और कांग्रेस मुक्त भारत के रास्ते पर आगे बढ़ेगी।
अति आत्मविश्वास से लबरेज ये वही भाजपा है, जो आम चुनाव से पहले एक भी लोकसभा सीट जीतने की संभावना रखने वाले छोटे से छोटे दल के साथ प्री पोल गठबंधन करने का कोई मौका नहीं छोड़ रही थी, लेकिन आम चुनाव में जीत के बाद उसे अपने साथियों का साथ छोड़ने से भी गुरेज नहीं है।
सपने देखना अच्छी बात है और उन्हें पूरा करने की कोशिश करना और भी अच्छी बात, लेकिन भाजपा को ये नहीं भूलना चाहिए कि बातें चाहे वो कितनी ही कर लें, आखिरी फैसला तो जनता को ही करना है। वैसे भी 19 अक्टूबर अब ज्यादा दूर नहीं है।


deepaktiwari555@gmail.com

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

खुशी जरूर मनाईये लेकिन…

वो अब कह रहे हैं कि ये चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े गए थे और उन्हीं के आधार पर जनता ने वोट दिया और अपने नेता को चुना। जी हां मोदी और अमित शाह की भाजपा का उपचुनाव के नतीजों पर कुछ ऐसा ही कहना है। 33 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के जब नतीजे आए, जिनमें से 11 सीटें यूपी की भी थी तो 16 मई के चुनावी नतीजों पर इतराने वाले बीजेपी नेताओं की चेहरे सफेद पड़ चुके थे। अच्छे दिनों के वादों के साथ जिस मोदी लहर पर सवार होकर भाजपा केन्द की सत्ता में काबिज हुई थी, उसका असर फारिग होता दिखाई दिया।
यूपी में लोकसभा की 80 सीटों में से 71 सीटें जीतने वाली भाजपा उपचुनाव में अपनी सीटों को तक नहीं बचा पाई तो ऐसा ही कुछ हाल पीएम मोदी के गृहराज्य गुजरात में और आम चुनाव में मिशन 25 पूरा करने वाले राजस्थान में भी हुआ। उपचुनाव में भाजपा की जीत होती तो शायद भाजपा नेताओं के स्वर बदले हुए होते, वे मोदी सरकार के काम को फुल नंबर देते हुए इसे जनता का फैसला बताने में जरा सी भी देर नहीं करते लेकिन नतीजे मनमाफिक नहीं आए हैं तो भाजपा के स्वर भी बदले बदले से हैं।
16 मई से 16 सितंबर तक जनता का मिजाज इस तेजी से बदलेगी शायद ही किसी ने सोचा होगा लेकिन ये हुआ और इसका होना भाजपा के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द है। वक्त है आत्ममंथन का, जीत की खुमारी से बाहर निकलने का, वर्ना जनता के मन को किसने पढ़ा है, हरियाणा और महाराष्ट्र में 15 अक्टूबर का चुनाव और 19 अक्टूबर के नतीजे भी ज्यादा दूर नहीं है। उसके बाद झारखंड और जम्मू-कश्मीर भी पीछे पीछे चल रहे हैं।
इस उपचुनाव के नतीजों ने भाजपा के चेहरे का रंग भले ही उड़ा दिया है, लेकिन कुछ चेहरों पर मुस्कान भी लौट आई है। शुरुआत करने के लिए यूपी से बेहतर जगह और क्या हो सकती है। तमाम मोर्चों पर विफल रहने के आरोपों से घिरे यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के चेहरे की मुस्कान को कैसे कोई भूल सकता है। अरसे बाद उपचुनाव के नतीजों ने अखिलेश को भी खिलखिलाने का मौका जो दे दिया।
ऐसा ही मुस्कान का इंतजार राजस्थान प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट को भी था, उनकी ये मुराद भी राजस्थान की 4 सीटों में से 3 सीट पर कांग्रेस की जीत के साथ पूरी हो गयी। हालांकि छोटी सी ही सही लेकिन खुशी भाजपा को भी मिली, पश्चिम बंगाल में आखिर बीजेपा का खाता खुल ही गया। भाजपाई इसकी खुशी भी मना रहे हैं, शायद भाजपा नेता भी बड़ी खुशी के चक्कर में छोटी खुशी को बेकार नहीं करना चाहते हैं। बढ़िया है, मनाईये खुशी...जरूर मनाईये, लेकिन ध्यान रखिए इस खुशी में इतना भी न डूब जाना कि 19 अक्टूबर को ये खुशी भी मयस्सर न हो सके।      


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