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बुधवार, 13 अगस्त 2014

मुलायम पर कठोर हुई माया !

सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह तैयार हैं, बस लालू प्रसाद यादव बसपा सुप्रीमो मायावती का हाथ पकड़कर उनके पास ले आएं। बिहार में भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ जदयू से हाथ मिलाने के बाद राजद प्रमुख लालू ने माया- मुलायम से आह्वान किया था कि भाजपा को रोकने के लिए यूपी में वे भी हाथ मिला लें। मुलायम ने साथ आने के संकेत भी दिए लेकिन मायावती ने मुलायम को ठेंगा दिखा दिया।
मायावती ने मुलायम और लालू दोनों को खरी खोटी सुनाते हुए चुनाव में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी क्या किसी भी पार्टी के साथ गठबंधन की संभावनाओं को खारिज कर दिया। (पढ़ें - बिहार सियासी दोस्ती के मायने ?)
आम चुनाव में यूपी में भाजपा ने सबसे बड़ी जीत हासिल करते हुए 42.3 फीसदी वोट पाए थे और प्रदेश की 80 में से 71 सीटों पर विजय हासिल की थी। यूपी में भाजपा को कड़ी चुनौती देने की बात करने वाली कांग्रेस सिर्फ 7.5 फीसदी वोट के साथ रायबरेली और अमेठी दो ही सीटें जीत पाई थी। वहीं सत्ताधारी समाजवादी पार्टी महज 22.2 फीसदी वोट के साथ 5 सीटें जीतने में ही सफल हो पाई तो बसपा 19.6 फीसदी वोट हासिल करने के बाद भी एक भी सीट जीतने में असफल रही थी।
प्रदेश में सत्तारूढ़ होने के बाद भी 5 सीटें जीतने वाली मुलायम की समाजवादी पार्टी को शायद ये एहसास हो गया है कि 2012 के विधानसभा चुनाव में 224 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत से सत्ता में आने के बाद आम चुनाव में करारी हार का ये सिलसिला उसे 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों में भी जारी रह सकता है और शायद इसलिए ही मुलायम बिहार में जदयू से हाथ मिलाने वाले लालू प्रसाद यादव की सलाह पर गंभीरता से विचार करते हुए दिखाई दिए और कह डाला कि लालू अगर माया को ले आएं तो वे यूपी में सपा मायावती के साथ हाथ मिलाने को तैयार हैं।
आम चुनाव में यूपी में आधी से अधिक सीटें जीतने का दावा कर तीसरे मोर्चे के सहारे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने का ख्वाब देखने वाले मुलायम का ख्वाब मोदी की आंधी में उड़ गया, ऐसे में अब मुलायम को शायद ये डर भी सता रहा है कि कहीं भविष्य में यूपी भी उनके हाथ से न निकल जाए।
वहीं यूपी में साथ आने की लालू की सलाह पर मुलायम के संकेतों पर आंखे तरेरने वाली मायावती ने साफ कर दिया है कि वो 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव अपने दम पर लड़ेगी और सपा क्या किसी भी दल के साथ गंठबंधन नहीं करेगी। मायावती ने ये भी दावा किया कि 2017 में बसपा एक बार फिर से पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आएगी। मायावती के इस भरोसे के पीछे मायावती का क्या गणित है, ये तो मायावती ही बेहतर समझा सकती हैं।
लेकिन आम चुनाव में खाता खोलने में असफल रही बसपा की उम्मीद पार्टी को मिले 19.6 प्रतिशत वोटों से ज्यादा लगती है। मायावती को शायद लगता है कि आम चुनाव में सीट भले ही बसपा को एक भी नहीं मिली लेकिन पार्टी 19.6 प्रतिशत वोटों के साथ भाजपा और सपा के बाद तीसरे नंबर पर रही, ऐसे में विधानसभा चुनाव में उसका ये वोट प्रतिशत उसकी सीटों की संख्या में बदल सकता है। वैसे भी 2007 में किसने सोचा था कि बसपा 207 सीटें जीतकर बहुमत के साथ सत्ता में आएगी, शायद मायावती को एक बार फिर से 2007 की तरह बसपा की जीत का भरोसा है।        
बहरहाल माया के इंकार के बाद मुलायम के साथ ही लालू और नीतिश कुमार को भी झटका तोजरूर लगा होगा, जो भाजपा को रोकने के लिए फिलहाल किसी भी हद तक जाने को तैयार दिखाई दे रहे हैं, ऐसे में देखना रोचक होगा कि भविष्य में विभिन्न राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव और उपचुनाव में जनता भाजपा के खिलाफ इन दलों की गोलबंदी को किस तरह लेती है। सवाल ये भी कि क्या आगामी चुनावों में भी दिखेगा मोदी लहर का असर या फिर मोदी सरकार के दो महीने के काम के आधार पर जनता करेगी कोई फैसला ?


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मंगलवार, 12 अगस्त 2014

बिहार – सियासी दोस्ती के मायने ?

बिहार विधानसभा चुनाव में भले ही अभी एक साल से अधिक का वक्त बचा हो लेकिन बिहार में सत्ता की मलाई खाने के लिए जोर आजमाईश अभी से शुरू हो चुकी है। 2014 के आम चुनाव में करारी शिकस्त खाने वाली सत्ताधारी जदयू के साथ ही राजद और कांग्रेस नेताओं के सिर से मोदी लहर का भूत उतरने का नाम ही नहीं ले रहा है। शायद यही वजह है कि मोदी लहर को चुनौती देने के लिए अब राजद, जदयू और कांग्रेस आगामी 21 अगस्त को 10 विधानसभा सीटों के होने वाले उपचुनाव से पहले साथ साथ आ गए हैं। कभी एक दूसरे के साथी रहे और फिर धुर विरोधी बने राजद के लालू प्रसाद यादव व जदयू के नीतिश कुमार अब गले में हाथ डाले दिखाई दे रहे हैं।
1993 में अलग अलग रास्ते जाने वाले लालू और नीतिश की राहें अब एक हो चली हैं। चुनावी मंच में दोनों एक दूसरे के गले में हाथ डालकर जनता को बताने की कोशिश कर रहे हैं कि उनकी जुगलबंदी सियासी फायदे के लिए नहीं है बल्कि वे भाजपा से देश को बचाना चाहते हैं और इसके लिए साथ आने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा है।
आम चुनाव में करारी शिकस्त झेलने के बाद लालू की राजद, नीतिश की जदयू और कांग्रेस के सामने बिहार मे अपना अस्तित्व बचाने का संकट खड़ा हो गया है। आम चुनाव में बिहार की 40 सीटों में से राजद जहां सिर्फ 4 सीटें जीत पायी थी, वहीं राज्य में सत्ताधारी जदयू सिर्फ 2 सीटों पर ही जीत हासिल कर पायी थी जब्कि कांग्रेस की सीटों की संख्या भी सिर्फ 2 पर आकर सिमट गयी। वहीं भाजपा गठबंधन ने 31 सीटों पर जीत हासिल की, जिसमें से भाजपा के खाते में 22 सीटें आई।  
लालू और नीतिश कह रहे हैं कि देश को बचाने के लिए वे साथ साथ आए हैं, लेकिन दोनों की बातों पर यकीन तो नहीं होता। दोनों का साथ आना, मिलकर चुनाव लड़ना अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाए रखने की कवायद नहीं है तो और क्या है ?
हाजीपुर की चुनावी रैली में तो दोनों गले मिलते दिखाई दिए लेकिन कौन जाने इनके मन में क्या है ?
लालू के राज को जंगलराज बताने वाली जदयू और नीतिश पर बिहार को बर्बाद करने का आरोप लगाने वाले लालू आज जब ऐसे वक्त पर गले मिल रहे हैं, जब दोनों की ही पार्टियों को आम चुनाव में जनता ने सिरे से नकार दिया तो कैसे कोई यकीन कर सकता है कि दोनों सिर्फ अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए ही साथ नहीं आए हैं  ?
सियासत में अपने फायदे के लिए दुश्मनों से हाथ मिलाने का राजनेताओं का पुराना शगल है। ऐसे में क्यों लालू औऱ नीतिश की बात पर यकीन किया जाए कि जो वह कह रहे हैं वही उनके मन में भी है ! (पढ़ें - बिहार दुश्मन का दुश्मन दोस्त !)
बिहार के मुख्यमंत्री मांझी के विधानसभा चुनाव में गठबंधन की जीत पर नीतिश को सीएम बनाए जाने की बात पर लालू का लाल चेहरा कैसे लाल हुआ था, ये तो आपको याद ही होगा !
आज लालू प्रसाद पूर्व मुख्यमंत्री नीतिश को अपना छोटा भाई बताते नहीं थक रहे हैं लेकिन तकरीबन 20 सालों तक यही छोटा भाई लालू का सबसे बड़ा सियासी दुश्मन हुआ करता था !
आज लालू देश बचाने की बात कर रहे हैं, लेकिन यह वही लालू हैं जो भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे हैं और चारा घोटाले के एक मामले में सीबाई की स्पेशल कोर्ट ने उन्हें पांच साल की सजा सुनाई है। फिलहाल लालू सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलने के बाद जेल से बाहर हैं।  
कुल मिलाकर देखा जाए तो बिहार में लालू और नीतिश की जुगलबंदी तो इसी ओर ईशारा कर रही है कि दोनों कांग्रेस के साथ मिलकर अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं और दोनों की नजरें एक बार फिर से अगले साल बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव पर हैं। फिलहाल तो इनके सामने 21 अगस्त को 10 विधानसभा सीटों के लिए होने वाले उपचुनाव की चुनौती है, देखते हैं इनकी सियासी दोस्ती का जवाब जनता किस तरह देती है ?


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सोमवार, 11 अगस्त 2014

भारत रत्न पर सियासत क्यों ?

भारत रत्न, भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान, हर भारतीय इस सम्मान को पाना चाहेगा। लेकिन क्या हर भारतीय इसका हकदार है। जाहिर है नहीं, लेकिन भारत रत्न पर बीते कुछ सालों से हो रही सियासत के बीच अब ये सवाल उठने लगा है कि आखिर कौन वास्तव में इस सम्मान का हकदार है..?
क्या केन्द्र की सत्ता में काबिज होने वाली सरकारें अपने दल से जुड़े लोगों को या फिर अपने सियासी फायदे के लिए इस सर्वोच्च भारतीय नागरिक सम्मान का मखौल तो नहीं उड़ा रही..?
क्यों केन्द्र सरकारें इस सम्मान को रेवड़ियों की तरह बांटकर इस सम्मान का मजाक बना रही हैं..?
हैरानी तो उस वक्त होती है, जैसा कि अमूमन देखा गया है कि इस सम्मान के लिए अधिकतर लोगों को मरणोपरांत चुना गया। केन्द्र में सरकार चाहे किसी की भी रही हो क्यों सरकारों को उस शख्सियत की देश के लिए दिए गए योगदान की कीमत उनकी मौत के बाद आती है। जीते जी उन्हें कोई नहीं पूछता लेकिन प्राण निकल जाने के बाद उन्हें सम्मान देने की होड़ सी लग जाती है।
1954 में इस सम्मान की स्थापना के बाद से अब तक 11 लोगों को मरणोपरांत भारत रत्न के लायक समझा गया। लाल बहादुर शास्त्री, के कामराज, आचार्य विनोबा भावे, मरूदुरु गोपाला रामचंद्रन, डॉ. भीमराव अंबेडकर, राजीव गांधी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, अरुणा आसफ अली, जयप्रकाश नारायण जैसी हस्तियों का देश के प्रति योगदान इनके जीवित रहते हुए तत्कालीन सरकारों की समझ से बाहर रहा लेकिन इनकी मौत के बाद सरकार ने इन्हें भारत रत्न के लायक समझा।
खास बात ये है कि इस सम्मान की स्थापना के वक्त इसमें मरणोपरांत किसी को इस सम्मान से नवाजने का प्रावधान नहीं था लेकिन 1955 में इस प्रावधान को भी इसमें जोड़ दिया गया। जिसके बाद से अब तक 11 लोगों को मरणोपरांत भारत रत्न प्रदान किया चुका है।
ख़बरों के मुताबिक अब एक बार फिर से भारत रत्न के लिए सरकारी कवायद शुरु हो गई है तो इस पर सियासत गर्माने लगी है। चर्चा में चल रहे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, हॉकी के जादूगर ध्यानचंद, दलित नेता काशीराम और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नाम बाहर आने के बाद अब कांग्रेस को लगता है कि इसमें और नामों को जोड़ा जाना चाहिए। हालांकि ये अलग बात है कि खुद सत्ता में रहते हुए कांग्रेस को इन महापुरुषों को भारत रत्न से नवाजने का कभी ख्याल नहीं आया। (पढ़ें - सचिन भारत रत्न तो ध्यानचंद और अटल क्यों नहीं..?)
मुद्दा ये नहीं है कि यूपीए सरकार में किसे इस सम्मान से नवाजा गया और एनडीए सरकार में किसे..?
मुद्दा ये है कि क्या भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान पर हो रही सियासत कितनी जायज है..?
ये एक ऐसा सम्मान है जिसे हर भारतीय पाना चाहेगा लेकिन जो लोग इस सम्मान के हकदार हैं, क्या उन्हें नजरअंदाज तो नहीं किया जा रहा और उनकी मौत के बाद उनको सम्मानित किया जा रहा है..?
सवाल ये भी है कि क्यों कुछ लोगों ने देश का प्रधानमंत्री रहते हुए खुद को तो इस सम्मान के लायक समझ लिया लेकिन कई वास्तविक हकदारों को जीते जी इस सम्मान के लायक नहीं समझा गया और मरणोपरांत उनका योगदान नजर आया।  जाहिर है बात जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी की ही हो रही है।
फरवरी 2014 में जब क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर को इस सम्मान से नवाजा गया तो इसके पीछे की सियासत को आसानी से समझा जा सकता था। सियासत हर पार्टी कर रही है, भाजपा अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न दिए जाने की बात कहती रह गई लेकिन यूपीए सरकार ने नहीं दिया, अब मोदी सरकार इस दिशा में कदम बढ़ाती दिख रही है, तो दूसरे नामों को उछालकर कांग्रेस इस पर सियासत कर रही है।
बात भाजपा, कांग्रेस की या फिर अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न दिया जाए या न दिया जाए की नहीं है बल्कि इस पर हो रही सियासत की है और इस सियासत में हर कोई शामिल है। अच्छा होगा कि भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान पर कम से कम राजनीति न हो और कम से कम इस सम्मान का मान बना रहे।


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रविवार, 10 अगस्त 2014

बेनीवाल पर बवाल से हैरानी क्यों ?

गुजरात से मिजोरम तबादला और फिर अपमानजनक बर्खास्तगी, कभी नरेन्द्र दामोदर दास मोदी की नींद उड़ाने वाली कमला बेनीवाल ने ये सोचा भी नहीं होगा कि ताउम्र शान से राजनीति करने के बाद उम्र के इस पड़ाव में उन्हें अपमान का घूंट पीना पड़ेगा। बेनीवाल के साथ ही तमाम कांग्रेसी इसे भले ही बदले की राजनीति करार देते नहीं अघा रहे हों, लेकिन मोदी सरकार के इस फैसले से हैरानी जरा भी नहीं होती। जो काम 2004 में केन्द्र की सत्ता में आने पर कांग्रेसनीत यूपीए सरकार ने किया था, उसी नक्शेकदम पर अब मोदी सरकार भी चल रही है।
कांग्रेस के सवाल उठाने पर सरकार इसे नियमों के तहत लिया गया सही फैसला ठहराते हुए तमाम तर्क पेश कर रही हो लेकिन इस फैसले के पहले मोदी सरकार की क्या नीयत थी, इसे आसानी से समझा जा सकता है। गुजरात में तत्कालीन मोदी सरकार के फैसलों को रेड लाईन खींचने वाली कमला बेनीवाल ने शायद ही उस वक्त ये सोचा होगा कि जिस गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी के फैसलों को रेड लाईट दिखाकर वे कांग्रेस आलाकमान की आंखों का तारा बनने के साथ ही कांग्रेस को गुजरात की मोदी सरकार पर सवाल उठाने के मौके भी कांग्रेस को दे रही हैं, वही मोदी भविष्य में उन्हें उनके राजनीतिक जीवन के अब तक के सबसे कड़वे दिन दिखाने वाले हैं।
बेनीवाल क्या, शायद ही किसी वे ये कल्पना की होगी कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा 2014 के आम चुनाव नें प्रचंड बहुमत से सत्ता में आएगी। लेकिन ऐसा हुआ और कमला बेनीवाल मोदी सरकार के रडार में ऐसी आईं कि उन्हें बुरी तरह अपमानित होकर राजभवन के ठाट त्याग कर घर लौटना पड़ा। जहां पर उनके किए कुछ कारनामों के लिए उन्हें और भी मुश्किल भरे दिनों से गुजरना पड़ सकता है।
शायद यही राजनीति है, कब, किसकी किस्तम का सितारा चमकने लगे, कोई नहीं जानता, न ही पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ये सोचा था कि कभी वे भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे और न ही नरेन्द्र मोदी ने इस जीत ती उम्मीद भी कभी की होगी, जो उन्हें 2014 के आम चुनाव में मिली। ये तो सिर्फ दो ही ताजा उदाहरण हैं। राजनीति का इतिहास ऐसे तमाम उदाहरणों से भरा पड़ा है, जब सत्ता ने खुद कई लोगों के कदम चूमे तो कई लोग सत्ता के करीब पहुंचकर भी हाथ मलते रह गए। अब बेनिवाल के साथ ये हो रहा है तो अचरज की कोई बात नहीं है, आज मोदी सरकार यूपीए के वक्त नियुक्त राज्यपालों को रडार पर ले रही है, भविष्य में कभी एनडीए सरकार में नियुक्त राज्यपालों को हो सकता है फिर से ऐसे ही दिन देखने पड़े।


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