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गुरुवार, 31 जुलाई 2014

सोनिया गांधी- त्याग की मूर्ति !

राजनीति में त्याग की कहानियां कम ही सुनने को मिलती हैं, 2004 में जब यूपीए सत्ता में आई तो ऐसी ही एक कहानी कही गई कि यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री की कुर्सी का त्याग किया है। उस वक्त सोनिया गांधी ने ये कहते हुए प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर दिया था कि ये उनकी अंतरआत्मा की आवाज है। लेकिन कभी कांग्रेस परिवार के करीबी रहे नटवर सिंह की आने वाली आत्मकथा वन लाइफ इज नॉट इनफमें गांधी परिवार से जुड़ी कई बातों का खुलासा होने की उम्मीद है। उनमें से एक खुलासा ये भी है कि सोनिया गांधी ने 2004 में अपनी अंतरआत्मा की आवाज़ पर पीएम बनने से इंकार नहीं किया था बल्कि इसके पीछे राहुल गांधी का डर था।
बकौल नटवर सिंह राहुल गांधी को डर था कि पीएम बनने पर सोनिया गांधी की उनकी दादी इंदिरा गांधी और पिता राजीव गांधी की ही तरह हत्या हो सकती है। मतलब साफ है कि पीएम न बनने का सोनिया गांधी का फैसला सोनिया की अंतरआत्मा की नहीं बल्कि राहुल की अंतरआत्मा की आवाज़ थी, जो सोनिया को प्रधानमंत्री न बनने के लिए कह रही थी। नटवर सिंह ये भी बताते हैं कि सोनिया के पीएम बनने वाली बात को किताब से हटाने के लिए प्रियंका गांधी उनसे मिली थी और सोनिया और राहुल गांधी ने भी उनसे इसको लेकर बात की थी। कांग्रेसी इसे भले ही राजनीति से प्रेरित बता रहे हों, लेकिन सवाल तो उठते ही हैं।
2005 में कांग्रेस से निकाले जा चुके नटवर सिंह की बातों पर विश्वास किया जाए तो ये साफ होता है कि सोनिया जिसे कांग्रेसी उनके इस फैसले के लिए त्याग की मूर्ति कहते हैं, वो दरअसल पीएम बनना चाहती थी लेकिन अपने बेटे राहुल के चलते उन्हें पीछे हटना पड़ा और खुद सोनिया गांधी ने इस फैसले से संसद के सेंट्रल हॉल में सबको ये कहते हुए अवगत कराया था कि वे अपनी अंतरआत्मा की आवाज़ पर पीएम बनने से पीछे पीछे हट रही हैं।
वैसे एक बात और समझ नहीं आती कि वाकई में सोनिया सत्ता नहीं चाहती थी, प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहती थी तो फिर उस वक्त एक ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री क्यों बनाया, जो यूपीए वन और यूपीए 2 के दस साल के कार्यकाल में प्रधानमंत्री होते हुए सिर्फ एक कठपुतली की तरह काम करता रहा जबकि सत्ता का दूसरा केन्द्र सोनिया गांधी ही थी..!
वाकई में अगर सोनिया को सत्ता की चाहत नहीं थी तो क्यों नहीं किसी दूसरे नेता को पीएम नहीं बनाया गया..? यहा जिक्र मनमोहन सिंह का हो रहा है, और इस बात का खुलासा कभी मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू भी अपनी किताब 'द ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर: द मेकिंग ऐंड अनमेंकिंग ऑफ मनमोहन सिंह में कर चुके हैं कि मनमोहन सिंह सिर्फ एक एक्टिंग प्राइम मिनिस्टर ही थे, जबकि सरकार सोनिया गांधी चला रहीं थी..!
सोनिया पीएम बनना चाहती थी लेकिन पुत्र राहुल गांधी की बात नहीं टाल पाई, ऐसे सरकार पर नियंत्रण के लिए सोनिया को पीएम की कुर्सी पर मनमोहन सिंह टाईप नेता ही चाहिए था, जो सोनिया के ईशारे पर काम करता रहे और मनमोहन सिंह ने भी सोनिया गांधी को निराश नहीं किया..!
राजनीति में सत्ता हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जाने वाले राजनेता सत्ता का त्याग करें, ये गले नहीं उतरता, फिर सोनिया क्यों अपनी अंतरआत्मा की आवाज पर पीएम की कुर्सी छोड़ती। इसको जयपर में कांग्रेस के चिंतन शिविर में राहुल गांधी के उस बयान से भी समझ सकते हैं, जब कांग्रेस उपाध्यक्ष की कुर्सी संभालते वक्त राहुल ने दिया था। याद होगा आपको राहुल गांधी ने कहा था कि मां ने उनसे कहा था कि सत्ता जहर के समान है।  
है न, हैरत की बात कि बेटा मां को पीएम इसलिए बनने से रोकता है क्योंकि उसे मां की हत्या का डर था, जबकि मां बेटे से कहती है कि सत्ता जहर है, लेकिन उस जहर को पीने के लिए आगे करती है..! अब मां – बेटे की इस थ्योरी को तो सिर्फ कांग्रेसी ही समझ सकते हैं..! वैसे समझने के लिए अभी काफी कुछ बाकी भी बचा है, नटवर सिंह कि आत्मकथा आनी अभी बाकी है। इंतजार कीजिए।

deepaktiwari555@gmail.com 

मंगलवार, 29 जुलाई 2014

हुड्डा पर हाईकमान मेहरबान !

हरियाणा विधानसभा चुनाव के मुहाने पर खड़ा है, ऐसे में कांग्रेस और हुड्डा दोनों चाहते हैं कि हरियणा में उनकी सरकार बने लेकिन हरियाणा कांग्रेस के दिग्गज नेता चौधरी बिरेन्द्र सिंह, कुमारी शैलजा समेत ऐसे कांग्रेसियों की लंबी फेरहिस्त है, जो भी चाहते हैं कि सरकार तो कांग्रेस की ही बने लेकिन उन्हें लगता है कि अगर कांग्रेस ने ये चुनाव भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में लड़ा तो कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ेगी।
इसके पीछे इन कांग्रेसियों का ये तर्क है कि हुड्डा का कार्यकाल नाकामियों से भरा है और हुड्डा ने प्रदेश के विकास के लिए कुछ नहीं किया और हुड्डा सरकार का पूरा ध्यान क्षेत्र विशेष के विकास पर ही रहा। इसका खामियाजा कांग्रेस को 2014 के आम चुनाव में भी भुगतना पड़ा था, जब कांग्रेस को राज्य की 10 सीटों में से सिर्फ एक ही सीट मिली जबकि 2009 में कांग्रेस के पास 9 सीटें थी। हरियाणा में कांग्रेस का स्कोर में 10 में से 9 की बजाए सिर्फ एक रह गया। वो भी रोहतक ससंदीय सीट, जहां पर मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के बेटे दीपेन्द्र सिंह हुड्डा ने जीत हासिल की।   
आम चुनाव के बाद आगामी विधानसभा चुनावों में जीत की संजीवनी ढ़ूंढ़ रही कांग्रेस के लिए हरियाणा राज्य इसलिए भी अहम है क्योंकि यहां पर कांग्रेस की सरकार है और कांग्रेस नहीं चाहती कि हरियाणा उसके हाथ से निकल जाए लेकिन हरियाणा कांग्रेस में जो कुछ हो रहा है, उसको देखते हुए तो लगता है कि हरियाणा कांग्रेस के हाथ से निकलना लगभग तय है। हुड्डा के विरोध में बिरेन्द्र सिंह और कुमारी शैलजा जैसे दिग्गज पहले ही विरोध का झंडा बुलंद करने में कोई कसर नहीं छोड रहे थे, ऐसे में अब हुड्डा के हालिया फैसलों ने कांग्रेस की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं।
हुड्डा अब हरियाणा में स्टेट इन्फर्मेशन कमिशन के नए सदस्यों और राइट टु सर्विस कमिश्नरों की विवादास्पद नियुक्तियों को लेकर चौतरफा घिर गए हैं। हुड्डा पर इन नियुक्तियों में नियमों का ताक पर रखने का आरोप लगा है। हुड्डा सरकार में ही बिजली मंत्री अजय यादव ने उन पर आरोप लगाते हुए इस्तीफा दे दिया है। यादव हुड्डा के लिए यह तक कह बैठे कि किसी को तो बिल्ली के गले में घंटी बांधनी ही थी, यह काम मैंने कर दिया। साथ ही प्रशासनिक सुधार विभाग के सचिव प्रदीप कासनी ने भी नियुक्तियों पर सवाल उठाते हुए इस पर दस्तखत करने से इंकार कर दिया। मामला यहीं थम जाता तो ठीक था लेकिन हरियाणा के मुख्य सचिव एससी चौधरी ने तो दस्तखत न करने पर आईएएस प्रदीप कासनी को धमकी भरा एसएमएस तक भेज दिया। मुख्य सचिव एसएमएस में लिखते हैं कि - 'गुड नाइट...प्लीज सेलिब्रिटी वाली हैसियत इंजॉय करो...लेकिन, अपनी मां का दूध पिया है तो मेरे सारे मेसेज प्रेस को दिखा देना।' ना नुकुर के बाद मुख्य सचिव ने एसएमएस के लिए माफी तो मांग ली, लेकिन इसने हुड्डा सरकार की जमकर किरकिरी हुई है।
मुख्यमंत्री हुड्डा विवादों में हैं, अपनी ही पार्टी के नेताओं के निशाने पर हैं लेकिन बकौल हुड्डा उनकी सरकार के सारे फैसले सही हैं। हुड्डा कहते हैं कि उनकी सरकार ने हरियाणा के विकास के लिए इतना काम किया, जितना अब तक किसी सरकार ने नहीं किया। हुड्डा इसे साबित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं, यकीन न आए तो हरियाणा के किसी भी समाचार चैनल और अख़बार, मैग्जीन पर एक निगाह डाल लिजिए, समझ जाएंगे कि हुड्डा कैसे सरकारी विज्ञापनों के जरिए हरियाणा को नंबर वन बना रहे हैं। करोड़ों रूपया सिर्फ इस बात पर खर्च किया जा रहा है कि हुड्डा का गुणगान किया जा सके, हरियाणा को विज्ञापनों में नंबर वन दिखाया जा सके लेकिन हुड्डा साहब को कौन समझाएं कि विज्ञापनों से वोट नहीं मिला करते।
एक बात और समझ नहीं आई, शायद हुड्डा जी ही समझा पाएंगे कि जब उनके मुताबिक उनकी सरकार ने हरियाणा में विकास की बयार बहाई है, हरियाणा को नंबर वन बनाया है, तो फिर ये सब हरियाणा की जनता को विज्ञापनों में करोड़ों रूपए खर्च कर ढ़िंढ़ोरा पीट पाटकर बताने की जरूरत क्यों पड़ रही है, बेहतर होता कि इस पैसे को भी हरियाणा के विकास पर ही खर्च करते।
हैरान करने वाली बात तो ये है कि हरियाणा में कांग्रेस नेताओं की अपसी जंग का अखाड़ा बनी हुई है, लेकिन कांग्रेस आलाकमान खामोश है। मुख्यमंत्री हुड्डा के खिलाफ कांग्रेस के कई दिग्गज मोर्चा खोलकर बैठे हैं, लेकिन कांग्रेस आलाकमान को हुड्डा से कोई शिकायत नहीं है। वो भी ऐसे वक्त पर जब आम चुनाव में अपने अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रही कांग्रेस के लिए हरियाणा का विधानसभा चुनाव सबसे अहम है। वजह चाहे जो भी हो, लेकिन सियासी गलियारों में तो यही चर्चाएं हैं कि कहीं मुख्यमंत्री हुड्डा पर कांग्रेस आलाकमान की मेहरबानी की वजह सोनिया गांधी के दाबाद राबर्ट वाड्रा तो नहीं है।

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रविवार, 27 जुलाई 2014

बिहार – दुश्मन का दुश्मन दोस्त !

राजनीति में राज करने का मौका न मिले तो फिर राजनीति करना व्यर्थ है। वैसे भी राजनीति में विरले ही ऐसे होते हैं, जो सत्ता सुख न भोगना चाहते हों, फिर इसके लिए उन्हें किसी भी हद तक क्यों न जाना पड़े। आम चुनाव के बाद बिहार में नीतिश कुमार की जदयू, लालू की राजद का जो हाल हुआ उसके बाद दोनों को भी शायद ये समझ में आ ही गया है। बिहार में विधानसभा की 10 सीटों पर होने जा रहे उपचुनाव से पहले कभी एक दूसरे के धुर विरोधी रहे लालू और नीतिश की जुगलबंदी बताती है कि सत्ता के लिए वे किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। हालांकि दोनों का ये याराना नया नहीं है और कभी दोनों साथ हुआ करते थे लेकिन बदलते वक्त के साथ दोनों एक – दूसरे के राजनीतिक दुश्मन बन गए थे और एक दूसरे पर कीचड़ उछालने तक का कोई मौका नहीं छोड़ते थे। जिस बिहार में कभी नीतिश को लालू राज किसी जंगलराज की तरह नजर आता था, वही नीतिश अब अपनी नई दुश्मन भारतीय जनता पार्टी को हराने के लिए लालू के साथ जुगलबंदी करने से तक परहेज नहीं कर रहे हैं। पीएम के लिए नरेन्द्र मोदी के नाम पर भाजपा का दामन छोड़ने वाले नीतिश को शायद उस वक्त ये एहसास तक नहीं होगा कि उनका ये फैसला उन्हें अपने पुराने समाजवादी साथी लालू प्रसाद यादव के करीब ले आएगा।   
हाल ही में हुए आम चुनाव में मोदी लहर में बिहार में जो हाल सत्ताधारी जदयू का हुआ था उसके बाद आगामी विधानसभा चुनाव में अपनी नई दुश्मन भाजपा को हराने के लिए नीतिश कुछ भी करने को तैयार दिखाई दे रहे हैं। आम चुनाव में राज्य में सत्तासीन होने के बाद भी 40 में सिर्फ दो सीट जीतने वाली जदयू को शायद डर है कि ऐसा ही हाल विधानसभा उपचुनाव और फिर उसके बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी का न हो। इसलिए ही घबराए नीतिश कुमार अब भाजपा को हराने के लिए राज्य में राजद और कांग्रेस से तक हाथ मिलाने में परहेज नहीं कर रहे हैं। हालांकि हश्र तो बिहार में लालू की राजद और कांग्रेस का भी कुछ जदयू जैसा ही हुआ है। राजद जहां सिर्फ 4 सीटें जीत पाई थी, वहीं कांग्रेस को बिहार में सिर्फ 2 सीट से ही संतोष करना पड़ा था। ऐसे में क्यों न राजद और कांग्रेस नीतिश का ये ऑफर ठुकराते..?
राज्य में आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए तीनों क्यों न हाथ मिलाते..?
भाजपा या कहें मोदी लहर का तीनों ही पार्टियों को कि कदर डर सता रहा है इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि भाजपा को टक्कर देने के लिए कुछ ही दिनों में बिहार की 10 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव में जदयू, राजद और कांग्रेस में गठबंधन हो गया है, जिसमें 4 सीटों पर जदयू, चार सीटों पर राजद तो 2 सीटों पर कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया है।
कहते हैं दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है, बिहार में जदयू, राजद और कांग्रेस का हालिया गठबंधन तो कम से कम इसी ओर ईशारा कर रहा है, ऐसे में अब देखना रोचक होगा कि इन तीनों की जुगलबंदी उपचुनाव में क्या गुल खिलाती है। देखना तो ये भी रोचक होगा कि बिहार की जनता इस नए राजनीतिक दोस्ती के क्या मायने निकालती है, और उपचुनाव में क्या फैसला सुनाती है।
हालांकि राह तो भाजपा की भी इतनी आसान नहीं है। भाजपा को भी इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि वो आम चुनाव जैसे परिणाम बिहार में फिर से दोहरा सकती है, क्योंकि महंगाई की मार के तले दबी जनता उपचुनाव के जरिए अपना गुस्सा दिखा सकती है, जैसे कि हाल ही में उत्तराखंड में देखने को मिला जहां भाजपा को विधानसभा की तीन सीटों पर हुए उपचुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा।


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