सियासत का सितम तो देखिए, जिस सियासत ने
लालू प्रसाद यादव को बिहार का सरताज बनाया और जिस सियासत के दम पर लालू देश का
सरताज बनने का ख़्वाब तक देखने लगे थे। उसी सियासत ने लालू को जेल की सलाखों के
पीछे पहुंचा दिया। सत्तर के दशक में जेपी के आंदोलन से हीरो बनकर निकले लालू
प्रसाद यादव की सक्रिय राजनीति यात्रा की शुरुआत जेल से ही हुई थी और 38 साल बाद एक
तरह से लालू की सियासी यात्रा का अंत भी जेल में होता हुआ दिखाई दे रहा है। ये बात
अलग है कि उस वक्त जेल जाने पर लालू किसी हीरो से कम नहीं थे, लेकिन आज ये जेल की सलाखें लालू के राजनीतिक सफर में किसी
काले धब्बे से कम नहीं है। (जरुर पढ़ें- अगर मैं चारा खाने नहीं जाता !)
हालांकि चारा घोटाले में 5 साल की सजा के खिलाफ
लालू के पास ऊपरी अदालत में अपील करने का विकल्प खुला हुआ है, लेकिन इसी उम्मीद
बहुत ज्यादा नहीं दिखाई देती कि लालू फिर से बिहार में चुनाव के मैदान में ताल
ठोकते दिखाई देंगे या फिर बिहार की राजनीति के किंग और देश की राजनीति में
किंगमेकर की भूमिका में दोबारा उसी दमखम से आ पाएंगे जिसके लिए लालू जाने जाते
हैं।
ये भी सियासत ही थी, जिसने लालू को बिहार
का मुख्यमंत्री से लेकर एक वक्त दिल्ली में किंगमेकर की स्थिति तक पहुंचाया और ये
भी सिसायत ही थी, जिसके बल पर सत्ता हासिल करने के बाद सत्ता की हनक में लालू
प्रसाद यादव ने इसे अपनी बपौती समझ लिया और जनता की गाढ़ी कमाई को चारा घोटाले के
रुप में हजम करने में बिल्कुल भी देरी नहीं की।
लालू के परिजनों के साथ ही उनके
शुभचिंतकों और राजद कार्यकर्ताओं को ये भले ही भाजपा और जदयू की साजिश नजर आती है
लेकिन लालू खुद इस बात को नहीं नकार सकते कि इसकी पटकथा के रचियता के रुप में खुद
लालू ही थे, जब लालू ने दोबारा बिहार के मुख्यमंत्री बनने के बाद भ्रष्टाचार की सारी
हदें पार कर दी थी और आज इस पटकथा का अंत लालू को चारा घोटाले में 5 साल की सजा के
साथ ही हुआ है।
वैसे कोस तो लालू और लालू के परिजन
कांग्रेस युवराज राहुल गांधी को भी रहे होंगे जो कम से कम लालू और उन जैसे तमाम दागी
नेताओं की राजनीतिक हत्या होने से तो रोक ही सकते थे। जाहिर है अगर दागियों को
बचाने वाले अध्यादेश के पोस्टर को फाड़ कर बाहर निकलकर राहुल गांधी जनता की नजरों
में हीरो बनने की कोशिश नहीं करते तो निश्चित तौर पर सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह
की कैबिनेट ने मिलकर लालू जैसे नेताओं की राजनीतिक हत्या होने से रोकने का पूरा
इंतजाम तो कर ही दिया था लेकिन राहुल गांधी ने एक पहले से गढ़ी हुई स्क्रिप्ट के
जरिए ही सही दागियों को बचाने की यूपीए सरकार की मंशा पर तो पानी फेर ही दिया। साथ
ही अंधकारमय कर दिया उन सैंकड़ों दागी नेताओं के राजनीतिक भविष्य को जो इस
अध्यादेश के सहारे अपने अंधकारमय होते राजनीतिक भविष्य में एक रोशनी की किरण को
तलाश रहे थे। (जरुर पढ़ें- जनभावना नहीं राहुल गांधी की चिंता !)
किसी और चीज के लिए न सही राहुल गांधी कम
से कम इस चीज के लिए धन्यवाद के पात्र हैं ही कि उन्होंने अपने राजनीतिक फायदे के
लिए ही सही कांग्रेस रणनीतिकारों की सलाह पर इस दिशा में एक कदम तो आगे बढ़ाया ही
है। वर्ना, कौन रोक लेता यूपीए सरकार को दागियों को बचाने वाले अध्यादेश को लाने
से क्योंकि सोनिया गांधी कांग्रेस कोर ग्रुप की बैठक में इस अध्यादेश को हरी झंडी
दे ही चुकी थी और मनमोहन कैबिनेट ने भी हर बार कि तरह सोनिया गांधी की आज्ञा का
पालन करने में बिना देर किए इस स्वीकृति के लिए राष्ट्रपति के पास भेज ही दिया था।
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