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शनिवार, 21 सितंबर 2013

वाह महाराज वाह !

कम से कम अभी तक मैं तो यही सोचता था कि नेता भी आखिर इंसान होते हैं, वे एक इंसान का दर्द समझ सकते हैं। पूरी दुनिया का न सही लेकिन कम से कम अपने क्षेत्र की जनता का दर्द तो समझ ही सकते हैं जिसने उन्हें अपना जनप्रतिनिधि चुनकर संसद या विधानसभा में भेजा है। लेकिन इस गलतफहमी को एक बार फिर से एक नेता ने ही दूर कर दिया। वो भी एक ऐसे नेता ने जो नेतानगरी के साथ ही धर्म की नगरी में लोगों को सादगी पसंद जीवन जीने की सीख के साथ ही इंसानियत का पाठ पढ़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ता।
इन नेताजी को लोग सतपाल महाराज के नाम से जानते हैं। नेता जी राजनीति के साथ ही धर्म की नगरी में भी खूब मशहूर हैं। ये अपने भक्तों को ज्ञान बांटने का कोई मौका नहीं छोड़ते। लेकिन सादगी औऱ इंसानियत की बात करने वाले इन नेताजी के खुद के कारनाम अगर आप सुनेंगे तो शायद आपके पैरों तले जमीन खिसक जाएगी।
दरअसल 21 सितंबर को सतपाल महाराज ने हरिद्वार में शाही अंदाज में अपना जन्मदिन मनाया। इस आयोजन को भव्य बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा से लेकर उनकी कैबिनेट के कई मंत्री तक इस भव्य आयोजन में न सिर्फ शरीक हुए बल्कि इन्होंने इस आयोजन का खूब लुत्फ उठाया।
मुझे सतपाल महाराज के जन्मदिन मनाने से कोई दिक्कत नहीं है लेकिन एक जनप्रतिनिधि को क्या ऐसे वक्त पर अपने जन्मदिन का शाही आयोजन करना चाहिए जब उनके क्षेत्र की जनता आपदा के दंश को झेल रही हो और दाने दाने को मोहताज हो..? लोगों को सादगी और इंसानियत का पाठ पढ़ाने वाले ऐसे व्यक्ति से खुद क्या ऐसे व्यवहार की उम्मीद की जा सकती है..?
जाहिर है एक जनप्रतिनिधि होने के नाते सांसद महोदय को अपने क्षेत्र की जनता के बीच होना चाहिए था और उनके कष्टों को कम करने की कोशिश करनी चाहिए थी लेकिन शाही आयोजनों के लिए मशहूर सतपाल महाराज के लिए अपना जन्मदिन मनाना शायद उनकी पहली प्राथमिकता रही होगी। आपदा प्रभावितों के बीच जाकर, पूरा दिन उनके साथ बिताकर अगर सतपाल महाराज अपना जन्मदिन मनाते, संकट के वक्त जरुरत की चीजें प्रभावितों को वितरित करते तो शायद पलभर के लिए ही सही उनके क्षेत्र की जनता के चेहरे पर खुशी की एक झलक तो आती लेकिन सतपाल महाराज के लिए शायद अपने क्षेत्र की जनता के कष्टों का कोई मूल्य नहीं है।
जब प्रदेश के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा से लेकर उनके मंत्री तक एक के बाद एक शाही भोज का आयोजन कर आपदा प्रभावितों को मुंह चिड़ा रहे हों तो फिर पौड़ी सासंद सतपाल महाराज क्यों पीछे रहें..? उनके पास तो शाही आयोजन के सवाल पर कहने के लिए उनके जन्मदिन का बहाना भी है।
वैसे भी सांसद महोदय से और क्या उम्मीद की जा सकती है, क्योंकि ये तो इनका पुराना स्टाईल है। बीते साल भी आपदा के वक्त सतपाल महाराज ने न सिर्फ इसी तरह शाही अंदाज में अपना जन्मदिन मनाया था बल्कि उसके तुरंत बाद 23 अक्टूबर 2012 को अपने बेटे श्रद्धेय के विवाह (जरुर पढ़ें- शर्म करो महाराज !) में भी करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाकर शादी को शाही शादी बानाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।


deepaktiwari555@gmail.com

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

हिंदी शर्म नहीं गर्व की भाषा

बात ज्यादा दिन पुरानी नहीं है, जब मैं अपने मित्रों के साथ गुलाबी नगरी जयपुर के पास स्थित नाहरगढ़ किले के भ्रमण पर था। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र होने के कारण बड़ी संख्या में देशी पर्यटकों के साथ ही विदेशी पर्यटक भी भारत भ्रमण के दौरान जयपुर जरुर आना चाहते हैं। नाहरगढ़ में भी हमें बड़ी तादाद में देशी के साथ विदेशी पर्यटकों का जमावड़ा देखने को मिला।
युवा विदेशी पर्यटकों का एक समूह काफी खुश दिखाई दे रहा था। हमने उनसे उनके भारत भ्रमण और इस किले के बावत उनका अनुभव जानने के लिए उनसे अंग्रेजी में बात करने की कोशिश की तो मालूम चला की उनकी अंग्रेजी बहुत अच्छी नहीं है। वे कहने लगे कि उन्हें न तो यहां की भाषा बोलनी आती है और न ही वे अंग्रेजी ठीक से बोल पाते हैं। बातों बातों में इतना पता चला कि वे पर्यटकों का ये समूह बेल्जियम से आया था। बेल्जियम में बोले जाने वाली भाषा डच, फ्रेंच और जर्मन भाष में अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल कर रहे थे। जाहिर है वे या तो अंग्रेजी में बात नहीं करना चाहते थे या फिर अपने देश की भाषा बोलने में ही वे गर्व महसूस कर रहे थे।
ये अनुभव मैं सिर्फ इसलिए साझा कर रहा हूं क्योंकि हमारे देश में जहां की मातृभाषा हिंदी है, बड़ी संख्या में लोग उसे बोलने में, लिखने में गर्व की बजाए शर्म महसूस करते हैं। जबकि दूसरे देशों में वहां के लोग शायद अंग्रेजी से ज्यादा अपनी भाषा को ज्यादा महत्व देते हैं और वे दुनिया के किसी भी कोने में हों अपनी भाषा बोलने में गर्व महसूस करते हैं, जबकि हम हिंदुस्तानियों के साथ इसका एकदम उल्ट है। वे खुलकर ये कहने में शर्म महसूस नहीं करते कि उन्हें अंग्रेजी भाषा नहीं आती लेकिन हमारे देश में हमें अंग्रेजी न आने के सवाल पर लोग शर्म महसूस करते हैं और अंग्रेजी बोलनी आती है कहने पर गर्व महसूस करते हैं, चाहे हमें ढंग से अंग्रेजी बोलनी भी न आती हो।
हम शायद ये सोचते हैं कि हिंदी अब सिर्फ गरीबों और अनपढ़ों की ही भाषा है जबकि अंग्रेजी बोलने से हम बड़े बन जाएंगे, हमारा मान बढ़ जाएगा, लोग हमें सम्मान की नजरों से देखेंगे जबकि अगर हम हिंदी में बात करेंगे तो लोग हमें हीन दृष्टि से देखेंगे, लोग हमारा मजाक बनाएंगे। जहां जरुरत हो वहां पर अंग्रेजी पर बात करना तो समझ में आता है लेकिन जहां आमने – सामने वाले दोनों लोग हिंदी समझते हों, वहां पर भी क्या अंग्रेजी में बात करने की जरुरत है..? ठीक है मत बात करिए हिंदी में लेकिन जरुरत पड़ने पर हिंदी में बोलने पर कम से कम शर्म की बजाए गर्व तो मसहूस कीजिए और ये कहने में मत हिचकिचाहट महसूस कीजिए की हिंदी हमारी मातृभाषा है।
वास्तव में हमें हिंदी को उसका सम्मान वापस दिलाना है तो इसकी शुरुआत हमें ही करनी होगी, कोई आपसे ये नहीं कहेगा कि आप हिंदी में ही बात करो, हिंदी में ही अपने सारे काम करो, बस फर्क सिर्फ सोच का है कि आप अपनी मातृभाषा के लिए क्या सोचते हैं..? क्या आप वास्तव में अपनी मातृभाषा का सम्मान करते हैं..? इसका जवाब आप ही के पास है, जिस दिन आपने इसका जवाब खोज लिया यकीन मानिए हिंदी अपना सम्मान, अपनी जगह खुद खोज लेगी और उसे अपने सम्मान के लिए फिर किसी विदेशी भाषा का मोहताज नहीं होना पड़ेगा।


deepaktiwari555@gmail.com

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

किसके दरबार में बहुगुणा ?

अपनी कुर्सी बचाने की जुगत में लगे उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा कोशिश तो लाख कर रहे हैं कि कैसे भी उनकी बच जाए लेकिन इसे उनकी राजनीतिक समझ की कमी कहें या फिर कुछ और लाख जतन के बाद भी विवादों से अपना पीछा नहीं छुड़ा पा रहे हैं। बहुगुणा का हर एक फैसला उनकी मुश्किलें कम करने की बजाए बढ़ाता ही जा रहा है।
आपदा के 86 दिन बाद केदारनाथ में पूजा के बहाने आपदा प्रबंधन में सरकार की नाकामी और राहत कार्यों में ढिलाई के दागों को धोने की कोशिश में लगे बहुगुणा पर सवाल पूजा के फैसले को लेकर ही उठने लगे थे। केदारनाथ के मुख्य रावल भीमा शंकर लिंगम से लेकर उनकी अपनी ही पार्टी के सांसद सतपाल महाराज ने तक पूजा की तारीख को लेकर बहुगुणा पर सवाल खड़े करने में देर नहीं की। मुख्य रावल ने पूजा का तारीख उनकी राय से तय न किए जाने की आरोप लगाया तो सतपाल महाराज ने भी पूजा की टाईमिंग को लेकर सरकार के प्रति खुलकर अपनी नाराजगी जाहिर की।
11 सितंबर को पूजा हो भी गयी लेकिन मुख्यमंत्री बहुगुणा दिल्ली परिक्रमा के चक्कर में खुद केदारनाथ नहीं पहुंच पाए। हालांकि मुख्यमंत्री के पास इसके लिए एक बार फिर से खराब मौसम का बहाना था लेकिन असल में पूजा की तारीख से तीन दिन पहले बहुगुणा दिल्ली दरबार की परिक्रमा में व्यस्त थे।
दरअसल मुख्यमंत्री की कोशिश थी कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनाया गांधी व राहुल गांधी 11 सितंबर को पूजा के वक्त केदारनाथ पहुंचे ताकि वे आलाकमान को ये भरोसा दिला सकें कि आपदा के दंश को झेल रहे उत्तराखंड में हालात सामान्य हो रहे हैं और उनकी डगमगाती कुर्सी बच जाए, लेकिन बहुगुणा की ये कोशिश भी नाकाम साबित हुई। सोनिया और राहुल तो केदारनाथ पहुंचे नहीं, खुद मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा भी दिल्ली दरबार की पूजा के चलते केदारनाथ पूजा में नहीं पहुंच पाए।
मुख्यमंत्री का हवा में केदारनाथ पहुंचने का कार्यक्रम था लेकिन मौसम दगा दे गया और बहगुणा देहरादून में ही रह गए। जबकि भाजपा नेता और सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक पैदल मार्ग से केदारनाथ पहुंच गए। जाहिर है बहुगुणा अगर चाहते तो वे भी सड़क मार्ग से केदारनाथ पहुंच सकते लेकिन बहुगुणा ने ये जहमत नहीं उठाई क्योंकि वे तो दिल्ली दरबार की परिक्रमा में व्यस्त थे।
सड़क मार्ग से बहुगुणा जाते तो शायद उन्हें एहसास होता कि वास्तव में आपदा प्रभावित क्षेत्रों में रहने वाले लोग एक एक पल कैसे गुजार रहे हैं, कैसे वे आज भी वे हर पल मौत के साए में जिंदगी बसर करने पर मजबूर हैं लेकिन अफसोस बहुगुणा को शायद आपदा प्रभावितों के दर्द को समझने की बजाए चिंता इस बात की ज्यादा थी कि कैसे अपनी कुर्सी बचायी जाए।
आसमान से तो वैसे भी सिर्फ बहती नदियां और हरे भरे पहाड़ ही दिखाई देते हैं, जिंदगी और मौत से जंग लड़ रहे आपदा प्रभावितो का दर्द नहीं। इस दर्द को समझने के लिए उनके बीच जाना होगा, उनके साथ कुछ वक्त गुजारना होगा लेकिन सरकार के मुखिया के पास राहुल गांधई को खुश करने के लिए दिल्ली यूनिवर्सिटी में एनएसयूआई के प्रत्याशियों के लिए प्रचार कर वोट मांगने का तो वक्त है लेकिन आपदा से जूझ रही अपनी प्रजा का हाल जानने का वक्त नहीं। आपदा के बाद से ही उडनखटोलों से तो मुख्यमंत्री और उनके नुमाइंदों ने आपदा प्रभावित क्षेत्रों के दौरे के नाम पर खूब हवाई सैर की लेकिन जमीन पर उतरकर आपदा प्रभावितों का दर्द समझने की हिम्मत ये लोग नहीं जुटा सके।    
बहरहाल केदारनाथ में जैसे तैसे पूजा जरुर शुरु हो गयी है लेकिन जमीनी हकीकत ये है कि पीड़ितों की मदद के नाम पर देशभर से भरपूर फंड जुटाने के बाद भी सरकार आपदा पीडितों के जख्मों को भरने में नाकाम साबित हुई है। मुख्यमंत्री पूजा के बहाने हालात सामान्य होने का दिखावा भले ही करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन आपदा प्रभावित क्षेत्रों में हालात आज भी बद से बदतर हैं। सरकारी अमला राहत एवं बचाव कार्य में कितनी संजीगदी से लगा था इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आपदा के करीब तीन माह बाद भी उत्तराखंड की पहाड़ियां नर कंकाल उगल रही है तो कई क्षेत्रों में जैसे तैसे अपनी जान बचाने में कामयाब रहे लोग आज भी राहत एवं पुनर्वास की बाट जोह रहे हैं।