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शनिवार, 6 अप्रैल 2013

खुश तो बहुत होंगे आडवाणी आज..!


खुश तो बहुत होंगे आडवाणी आज...आखिर भाजपा नेता विजय गोयल ने आडवाणी को खुशी की वजह जो दे दी। जो बात आडवाणी चाहकर भी अपने मुंह से नहीं कह सकते थे वो बात भाजपा के स्थापना दिवस के मौके पर विजय गोयल ने कह दी। पीएम इन वेटिंग का तमगा आडवाणी को यूं ही नहीं मिला..! इसके पीछे की कहानी से कौन नहीं वाकिफ है..? अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में उप प्रधानमंत्री बनने के बाद से लेकर बीते आम चुनाव तक प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने की आडवाणी की प्रबल इच्छा थी लेकिन जनता जनार्दन ने एनडीए को सत्ता में वापस न लाकर आडवाणी का पीएम इन वेटिंग के टिकट को कन्फर्म करने में कोई दरियादिली नहीं दिखाई। नतीजा आडवाणी पीएम इन वेटिंग ही रह गए..! (जरूर पढ़ें- पीएम इन वेटिंग...बड़ी आत्म संतुष्टि)
2014 में सत्ता में आने का ख़्वाब संज़ों रही भाजपा में पीएम की उम्मीदवारी के लिए मोदी की प्रबल दावेदारी के बीच जिस तरह से दिल्ली भाजपा प्रदेश अध्यक्ष विजय गोयल ने भाजपा के स्थापना दिवस समारोह में आडवाणी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने की बात कह डाली वो 85 साल के आडवाणी के लिए खुशी की वजह नहीं तो और क्या है..? (जरूर पढ़ें- क्या सच बोल रहे हैं आडवाणी ?)
गोयल भले ही बाद में अपनी बात पर ये कहकर सफाई देते दिखाई दिए कि वे पीएम का उम्मीदवार घोषित करने वाले कौन होते हैं लेकिन गोयल का जुबानी तीर तो मंच से चल ही चुका था वो भी तब जब मंच में भाजपा के तमाम कद्दावर नेताओं के साथ ही लाल कृष्ण आडवाणी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी मौजूद थे। वैसे भी नेता चाहे वे किसी भी दल के क्यों न हों उनका अपने बयान से पलटना ठीक उसी तरह है जैसे खुजली होने पर खुजलाना। अब गोयल भी पलट गए तो क्या लेकिन बात निकली है तो फिर दूर तलक जाएगी ही..!
खैर गोयल के बयान के बाद चर्चा का दौर भी शुरु हो ही गया है लेकिन खुद आडवाणी भी इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि गोयल का ये बयान उन्हें पलभर की खुशी से ज्यादा और कुछ नहीं दे सकता है..! पीएम के लिए वेटिंग कन्फर्म करना तो दूर की कौड़ी है..! भाजपा में मोदी का लगातार बढ़ता कद और लोकप्रियता के साथ ही भाजपा के वर्तमान हालात को कम से कम इसी ओर इशारा कर रहे हैं..! (जरूर पढ़ें- भाजपा से क्यों हुआ मोहभंग..?)
लेकिन राजनीति में नेता की किस्मत कब उसे अर्श से फर्श पर और फर्श से अर्श पर पहुंचा दे कहा नहीं जा सकता...अब पीवी नरसिंह राव, एचडी देवगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल के साथ ही मनमोहन सिंह ने क्या कभी सोचा होगा कि वे देश के प्रधानमंत्री बनेंगे..? लेकिन इतिहास हमारे सामने है। आडवाणी तो कम से कम प्रधानमंत्री के लिए वेटिंग की कतार में तो लंबे वक्त तक रहे ही हैं और एक बार फिर गोयल ने आडवाणी के नाम को हवा दे ही दी है..! (जरूर पढ़ें- मोदी बनाम राहुल- किसका चमकेगा सितारा..?)
आडवाणी की खुशी के लिए ही सही उम्र के इस पड़ाव में किसी ने तो उनके नाम का झंडा बुलंद किया। वैसे भी खुश होने का मौका कम ही लोगों को मिलता है अब आडवाणी को प्रधानमंत्री की कुर्सी की बड़ी खुशी न मिली तो क्या हुआ इसका एहसास खुश होने के लिए काफी है...कहते भी हैं न कि बड़ी खुशी के चक्कर में नन्ही न कर बेकार”…इसलिए आडवाणी जी पीएम की दावेदारी के एहसास से ही काम चलाइए वैसे भी इस बात की क्या गारंटी है कि 2014 में जनता जनार्दन एनडीए को सरकार बनाने का मौका देगी ही..!

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शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

मोदी बनाम राहुल- किसका चमकेगा सितारा..?


2014 के आम चुनाव से देश के दो बड़े राजनीतिक दलों में चर्चा चुनाव जीतने की नहीं है बल्कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा इसको लेकर ज्यादा है। कांग्रेसी एकमत से राहुल गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाना चाहते हैं...मनमोहन सिंह तो राहुल गांधी के लिए कुर्सी छोड़ने को तैयार बैठे हैं..! लेकिन कांग्रेस के युवराज हैं कि मानने को तैयार ही नहीं हैं। अलग-अलग मंचों पर राहुल गांधी के बयानों से तो कम से कम यही लगता है। पीएम की उम्मीदवारी के चाटुकारिता भरे सवाल पर कभी वे उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को फटकार लगाते हैं तो कभी पीएम के सवाल को फिजूल बताते हैं। (जरूर पढ़ें- विजय बहुगुणा कैसे बने मुख्यमंत्री ?)
उपाध्यक्ष की कुर्सी सौंपने के बाद सोनिया गांधी ने भले ही राहुल को अघोषित तौर पर पीएम प्रोजेक्ट करने के संकेत दिए हों लेकिन राहुल की तेवर देखकर तो ऐसा लगता है कि वे फिलहाल कांग्रेस के लिए बतौर पॉलीटिक्ल एक्टिविस्ट ही काम करते रहना चाहते हैं। कुल मिलाकर राहुल का बार-बार पीएम की कुर्सी के सवाल पर इससे मुहं मोड़ना अपने आप में कई सवाल खड़े करता है..? जाहिर है ये वेवजह तो नहीं हो सकता तो फिर इसके पीछे कहीं राहुल गांधी का वो डर तो नहीं जो उन्हें अंदर ही अंदर पीएम की कुर्सी के सवाल पर इससे दूरी बनाए रखने की ही सलाह देता है। (जरूर पढ़ें- राहुल गांधी का डर !)
एक तरफ कांग्रेस के युवराज राहुल जहां पीएम की कुर्सी की राह में चुनाव जीतने की स्थिति में भी पार्टी की तरफ से कोई रोड़ा न होने पर भी कुर्सी से दूरी बनाए रखना चाहते हैं वहीं दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी ही पार्टी में पीएम पद पर उनकी उम्मीदवारी के विरोध में स्वर के बाद भी गुजरात का कर्ज उतारने के बाद अब देश का कर्ज उतारने की हुंकार भरते हैं। भाजपा ने 2014 के लिए भले ही नरेन्द्र मोदी को पीएम पद का उम्मीदवार घोषित न किया हो लेकिन संसदीय बोर्ड में मोदी की एंट्री सारी कहानी खुद बयां कर रही है।
तीसरी बार गुजरात के मुख्यमंत्री का ताज पहनने वाले नरेन्द्र मोदी के पास जहां खोने के लिए कुछ भी नहीं है वहीं कांग्रेस युवराज राहुल गांधी के लिए 2014 का आम चुनाव किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं है..! (जरूर पढ़ें- अगला पीएम कौनराहुल, मोदी या..?)
2014 में अगर एनडीए की सरकार बनने की स्थिति आती है तो नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने की भी संभावना भी प्रबल है..! जाहिर है मोदी किसी राज्य के मुख्यमंत्री से देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो मोदी का कद बढ़ेगा ही लेकिन अगर ऐसा नहीं होता है तो मोदी के पास खोने के लिए तो कुछ है नहीं...बाकी गुजरात तो रहेगा ही मोदी के पास ..!
वहीं दूसरी तरफ यूपीए की सरकार बनने की स्थिति आती है तो राहुल के पास  पाने के लिए पीएम की कुर्सी भी नहीं है क्योंकि वो तो वैसे भी अघोषित तौर पर राहुल गांधी के पास है ही..! हां बड़ा सियासी फायदा राहुल गांधी को ये होगा कि 2014 में कांग्रेस की जीत राहुल गांधी का बायोडाटा जरूर सुधार देगी..!
लेकिन अगर कांग्रेस की हार होती है तो राहुल गांधी के करियर पर एक और सियासी शिकस्त का दाग लगेगा जो शायद राहुल गांधी कभी नहीं चाहेंगे इसलिए ही वे पीएम की उम्मीदवारी पर फिलहाल बात नहीं कर रहे हैं क्योंकि पीएम की उम्मीदवारी के साथ चुनाव लड़ने पर शिकस्त मिलने का मतलब है कि हार का दाग कुछ ज्यादा ही गहरा नजर आएगा..!
2014 के चुनावी नतीजे सिर्फ देश की ही तकदीर तय नहीं करेंगे बल्कि गुजरात के बाद देश की जनता पर जादू चलाने की कोशिश कर रहे नरेन्द्र मोदी के साथ ही देश की दशा – दिशा बदलने की बात करने वाले कांग्रेस युवराज राहुल गांधी के सियासी भविष्य का भी फैसला करेंगे..! हम तो नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी को शुभकामनाएं ही दे सकते हैं बाकी फैसला तो देश की आवाम के ही हाथ में है।

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बुधवार, 3 अप्रैल 2013

केजरीवाल- छलावा या आम आदमी का संघर्ष..?


राजनीति के दलदल में उतरकर जनता के लिए सत्ता का रास्ता तैयार करने की बात करने वाले आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल लिया है और बकौल आम आदमी पार्टी उन्हें जनता का भरपूर साथ मिल रहा है लेकिन ये साथ वास्तव में दिखाई नहीं दे रहा है। केजरीवाल को लेकर लोगों के मत भी अलग- अलग है और कुछ लोग राजनीति में उतरकर राजनीति की गंदगी को साफ करने के केजरीवाल के फैसले को सही मानते है तो कुछ लोग इसे सिर्फ स्वार्थ की राजनीति करार देते हैं ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या वाकई में केजरीवाल का राजनीति में उतरने का फैसला व्यक्तिगत स्वार्थों को साधने का एक जरिया है या फिर वाकई में केजरीवाल जिस मिशन की बात कर रहे हैं उस पर विश्वास किया जा सकता है..?
अन्ना हजारे से अलग होने के बाद राजनीतिक दल गठन के केजरीवाल के फैसले से कहीं न कहीं लोगों का विश्वास टूटा है और लोगों को भ्रष्ट तंत्र में सुधार की जो गुंजाईश दिखाई देने लगी थी कहीं न कहीं वो धुंधली हुई है और शायद यही वजह है कि जो जनसहयोग केजरीवाल के अन्ना से अलग होने से पहले इस तरह के अनशन में या आंदोलन में दिखाई देता था वो अब कहीं नजर नहीं आता है।
राजनीतिक दलों और राजनेताओं के झूठे वादे और व्यक्तिगत स्वार्थों की राजनीति से कहीं न कहीं लोग इस कदर त्रस्त हैं कि शायद वे अब राजनीति के रास्ते इस गंदगी को साफ करने के केजरीवाल के फैसले को पचा नहीं पा रहे हैं और केजरीवाल एंड कपनी को भी उसी नजर से देखने लगे हैं जिस नजर से वे मौजूदा राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को देखते हैं।
लेकिन केजरीवाल के राजनीतिक दल गठन से पहले की भूमिका और इससे पहले उनके कार्यों को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते ऐसे में ये कहना फिलहाल जल्दबाजी होगा कि अरविंद केजरीवाल भी दूसरे राजनेताओं की तरह व्यक्तिगत स्वार्थ की राजनीति कर रहे हैं और सत्ता में पहुंचकर अपने हित साधना चाहते हैं। जो लोग ऐसे कह रहे हैं अगर वाकई में उनकी बातों में दम है तो इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि केजरीवाल अगर ऐसा कुछ कर रहे हैं तो वो ज्यादा दिन तक जनता को बेवकूफ नहीं बना सकते..!  
जहां तक केजरीवाल को अन्ना से अलग होने के बाद पहले जितना जनसमर्थन न मिलने की बात है तो इसके पीछे कहीं न कहीं अन्ना के आंदोलन के बिखरने को हम एक वजह के रूप में देख सकते हैं क्योंकि उस वक्त टीम अन्ना से देश की जनता की उम्मीदें बहुत ज्यादा बढ़ गयी थी जिसका प्रमाण आंदोलन में शामिल होने वाला लोगों का भारी जनसमूह था लेकिन आंदोलन का एकाएक खत्म होना और केजरीवाल का राजनीतिक दल गठन का फैसला करना लोगों की उम्मीदों पर एक कुठाराघात की तरह था जिसका असर अब केजरीवाल के आंदोलन में साफ दिखाई देने लगा है जहां पहले जितना जनसमर्थन नहीं दिखाई देता..!  
दरअसल इसके पीछे राजनीति के प्रति लोगों की बन चुकी वो मानसिकता भी है जो लोगों को ये सोचने पर मजबूर करती है कि कोई भी आंदोलन एक राजनीतिक हथकंडा है और लोगों का एक वर्ग कहीं न कहीं ये मानने लगा है कि अरविंद केजरीवाल का आंदोलन भी सिर्फ एक राजनीतिक हंथकंडा है जिसका खामियाजा केजरीवाल के आंदोलन और संघर्ष को भुगतना पड़ रहा है और राजनीतिक दल गठन से पहले केजरीवाल की जो छवि लोगों के जेहन में थी राजनीति शब्द जुड़ने के साथ ही वो छवि भी अब राजनैतिक हो गयी लगती है..!
निश्चित तौर पर राजनीति में उतरने का अधिकार हर व्यक्ति को है और अगर अरविंद ने ऐसा किया है तो इसे हम पूरी तरह गलत नहीं ठहरा सकते हैं। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि राजनीति के दलदल में में खुद को डूबने से बचाना केजरीवाल एंड कंपनी के लिए आसान काम नहीं होगा..?
हो सकता है केजरीवाल खुद को इस दलदल में डूबने से बचा भी लें लेकिन आम आदमी पार्टी से जुड़े उनके आस पास रहने वाले लोग क्या खुद को डूबने से बचा पाएंगे..? जाहिर है अगर उनके आस पास के लोग इस दलदल में डूबते हैं तो उस वक्त सवाल केजरीवाल पर ही उठेंगे और केजरीवाल के लिए इन सवालों का सामना करना आसान नहीं होगा।
अलग – अलग लोगों की दलीलें भी अलग- अलग हैं और हम सिर्फ इन दलीलों के आधार पर ही सरकारी अधिकारी से समाजसेवी और समाजसेवी से राजनेता बने अरविंद केजरीवाल एंड कंपनी से मुंह नहीं मोड़ सकते कि केजरीवाल का संघर्ष देश की जनता के साथ छलावा है क्योंकि केजरीवाल भी ये बात अच्छी तरह समझते हैं कि अगर उनकी नीयत में अगर खोट है तो वो ज्यादा दिन तक देश की जनता को नहीं छल सकते।
बहरहाल चुनाव में असल तस्वीर पर से पर्दा जनता को ही हटाना है और चुनावी नतीजे ये साफ कर देंगे कि जिस आम आदमी के सहारे अरविंद केजरीवाल भ्रष्टतंत्र को बदलने की लड़ाई लड़ रहे हैं उस आम आदमी के दिल में केजरीवाल जगह बना पाए हैं या नहीं..?

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मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

अगला पीएम कौन…राहुल, मोदी या..?


राजनीति में सत्ता की डगर आसान नहीं होती। हो भी कैसे ये रास्ता जनता के दिलों के साथ ही विरोधियों के दरवाजे से भी होकर गुजरता है। जनता का दिल को कहीं न कहीं पसीज भी जाता है लेकिन अपने विरोधी को चारों खाने चित करने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं..!
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अपनी टीम का ऐलान क्या किया विरोधियों ने यहां भी घेराबंदी का कोई मौका नहीं छोड़ा। कांग्रेसी इसे 2014 में भाजपा की लुटिया डुबोने वाली टीम करार दे रहे हैं तो दूसरे विरोधी भी निशाना साधने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। हालांकि भाजपा नेता भले ही इस सब से इत्तेफाक न रखते हों लेकिन ये कारनामा करने में वे भी पीछे नहीं रहे जब कांग्रेस ने राहुल गांधी को उपाध्यक्ष बनाकर कांग्रेस में दूसरी नंबर की पोजिशन दी उस वक्त भाजपा भी कुछ ऐसा ही राग अलाप रही थी जो कि अब कांग्रेसी नेता अलाप रहे हैं..!
सही मायने में शायद यही राजनीति है कि राजनीतिक दल और उनके नेता खुद को मजबूत करने की बजाए अपने विरोधियों को कमजोर करने में अपना पूरी ताकत लगाते हैं..! वे खुद की उपलब्धियों की बजाए विरोधियों की कमजोरियों और नाकामियों को हथियार बनाते हैं..! और इसी के बल पर सत्ता हासिल करने का ख्वाब देखते हैं..!
राहुल गांधी की ताजपोशी के वक्त ये काम भाजपा नेताओं ने किया तो राजनाथ सिंह की नई टीम के एलान और संसदीय बोर्ड में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की एंट्री पर अब कांग्रेसी इस काम को कर रहे हैं। लेकिन सवाल ये है कि क्या संसदीय बोर्ड में नरेन्द्र मोदी की एंट्री के बाद वाकई में 2014 में मुकाबला राहुल गांधी बनाम नरेन्द्र मोदी होगा..? क्या एनडीए की सरकार बनने की स्थिति में प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए मोदी की राह भी उतनी ही आसान है जितनी कि यूपीए में राहुल गांधी की..?
राहुल गांधी भले ही पीएम की कुर्सी की दावेदारी से इंकार करते रहे हों लेकिन कांग्रेसी नेताओं का चाटुकारिता के बहाने ही सही लेकिन बार – बार ये कहना कि राहुल गांधी की कांग्रेस की सरकार बनने की स्थिति में प्रधानमंत्री बनेंगे कहीं न कहीं जाहिर करता है कि 2014 से ऐन पहले राहुल गांधी को उपाध्यक्ष बनाकर कांग्रेस में नंबर दो की कुर्सी पर काबिज करना कहीं न कहीं इसका एक संकेत है..! इसमें कोई दो राय भी नहीं कि अगर 2014 में यूपीए की सरकार बनने की स्थिति आती है तो पीएम की कुर्सी के लिए राहुल के नाम पर कांग्रेस में आपत्ति करने की हिम्मत शायद ही किसी नेता में होगी..!
वहीं भाजपा की अगर बात करें तो गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की लगातार बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए ही शायद भाजपा ने मोदी को संसदीय बोर्ड में शामिल कर कहीं न कहीं मोदी के नेतृत्व में 2014 का आम चुनाव लड़ने के संकेत दिए हैं..! लेकिन मोदी के नाम पर पार्टी के अंदर ही नेताओं का एकजुट न होना और गंठबंधन के सहयोगियों का मोदी के नाम पर आंखे तरेरना मोदी की राह में रोड़े अटकाता भी दिखाई दे रहा है..! भाजपा भले ही चुनाव मोदी के नेतृत्व में लड़ने का फैसला कर ले लेकिन भविष्य में अगर एनडीए की सरकार बनने की स्थिति बनती है तो उस वक्त पीएम की कुर्सी को लेकर घमासान मचना तय है।
कोई कुछ भी कहे लेकिन 2014 की रणभेरी में राहुल गांधी बनाम नरेन्द्र मोदी के बीच मुकाबले की पटकथा लिखी जा चुकी है और अपनी – अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए सियासी जोर आजमाईश शुरु हो चुकी है।
जीत का सेहरा किसके सिर सजेगा ये तो जनता जनार्दन को तय करना है लेकिन पीएम की कुर्सी पर बैठने का ख्वाब तो राहुल और मोदी के अलावा भी कई पाले बैठे हैं..! ऐसे में देखना ये होगा कि 2014 में फिर किसी मनमोहन सिंह की किस्मत उसे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाती है या फिर भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी की तरह कुछ लोगों के ख्वाब भी पीएम इन वेटिंग की खिड़की पर ही दम तोड़ देंगे..!

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