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शनिवार, 26 जनवरी 2013

ये वही राजपथ है...वही “गण’ ‘तंत्र” है !


चारों तरफ गणतंत्र दिवस की धूम है...हो भी क्यों न आज से 63 साल पहले 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान आज ही के दिन लागू हुआ था। भारत का संविधान अस्तित्व में आने के बाद भारत एक संप्रभु देश बना था। दिल्ली में आज राष्ट्रपति ने तिरंगा फहराया जिसके बाद राजपाथ में जमीन से आसमान तक भारत की बहुमूल्य संस्कृति और सैन्य ताकत का भव्य नजारा दिखाई दिया।
राज्यों की रंग बिरंगी संस्कृति से देश रूबरु हुआ तो विश्व शक्ति बनने की ओर अग्रसर भारत ने दुनिया को अपनी ताकत का एहसास भी कराया। पांच हजार किलोमीटर से अधिक दूरी तक मार करने वाली अग्नि-5 मिसाइल के साथ ही अवॉक्स प्रणाली और पानी के भीतर दुश्मन की निगरानी में सक्षम नौसैनिक सोनार प्रणाली की भी नुमाइश हुई तो अर्जुन टैंक, सर्वत्र पुल, पिनाक मल्टी बैरल रॉकेट लांचर सिस्टम भी नजर आया। वहीं  इस साल नौसेना में शामिल होने वाले विमानवाहक पोत आइएनएस विक्रमादित्य का लघु संस्करण भी परेड में दिखा।
64वें गणतंत्र दिवस पर राजपथ देश प्रेम से ओतप्रोत दिखाई दे रहा था लेकिन इस गणतंत्र दिवस पर हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि जिस राजपथ पर देश की संस्कृति और सैन्य ताकत पर आज हम इठला रहे हैं...इस राजपथ पर दिसंबर में दिल्ली गैंगरेप के खिलाफ देश के युवाओं में जबरदस्त आक्रोश देखने को मिला था। उस वक्त न तो देश के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी राष्ट्रपति भवन से बाहर निकले न ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने युवा आक्रोश को समझने की कोशिश की। देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने तो इनकी तुलना नक्सलियों से तक कर दी थी।
राजपाथ पर युवाओं को न सिर्फ अपनी आवाज बुलंद करने से रोका गया बल्कि दिल्ली पुलिस ने तो उन पर पानी की बौछार करने के साथ ही लाठियां भांजने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हालांकि देर से ही सही लेकिन राजपाथ पर उमड़ा युवाओं का आक्रोश रंग भी लाया और सरकार न सिर्फ महिलाओं की सुरक्षा के प्रति संजीदा दिखाई दी बल्कि महिला अपराधों को रोकने के लिए कड़े कदम उठाने की कवायद भी शुरु हुई।
गणतंत्र दिवस से ठीक पहले जनवरी के पहले सप्ताह में सीमा पर पाकिस्तानी सैनिकों की बर्बरता ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था लेकिन उस वक्त पाकिस्तान को मुंहतोड़  जवाब देना तो दूर हमारे प्रधानमंत्री को मुंह खोलने में पूरे एक सप्ताह का वक्त लग गया। इस घटना के बाद भारत के कमजोर और ढीले रवैये ने दुश्मन के हौसले को बढ़ाने का ही काम किया फिर वो एक हफ्ते बाद पीएम की चुप्पी टूटने की बात हो या फिर गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे का गैर जिम्मेदाराना बयान।
अहम मुद्दों पर देर से चुप्पी तोड़ने वाले हमारे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने इस गणतंत्र दिवस पर तमाम मुद्दों के अलावा महिलाओं को सुरक्षा का भरोसा देने के साथ ही पाक की बर्बर कार्रवाई पर पाकिस्तान को चेताया तो है...लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या सिर्फ महिलाओं को सुरक्षा का भरोसा महिलाओं के साथ हो रहे अपराध को कम कर पाएगा या फिर पाकिस्तान को चेतावनी मात्र देने से सीमा पर ऐसी घटनाएं दोबारा नहीं होंगी..?
क्या ये वक्त नहीं है कि महिलाओं की सुरक्षा के लिए सिर्फ जांच कमेटी, रिपोर्टों से आगे बढ़कर इस दिशा में न सिर्फ ठोस कदम उठाए जाएं बल्कि उनका क्रियान्वयन भी हो..? क्या ये वक्त नहीं कि सीमा पर बर्बरता दिखाने वाले पाकिस्तान को सबक सिखाया जाए बजाए इसके कि हमारी सरकार में शामिल लोग हिंदू आतंकवाद जैसे बयान देकर उनकी हौसला अफज़ाई करें..?
उम्मीद करते हैं इस गणतंत्र दिवस के बाद से एक नई शुरुआत होगी...महिलाएं बिना डर के घर से बाहर निकलने की हिम्मत जुटा पाएंगी तो भारत की तरफ पलटकर देखने से पहले पाकिस्तान सौ बार सोचेगा..! हालांकि ये बात सही है कि इसके लिए सिर्फ तंत्र को ही नहीं बल्कि गणको भी संकल्प लेना होगा इसी उम्मीद के साथ आप सभी को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।। जय हिंद ।।

deepaktiwari555@gmail.com

शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

राष्ट्रपति का संबोधन- हिंदी और अफजल गुरु गायब !


26 जनवरी की पूर्व संध्या पर डीडी न्यूज पर राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी का देश के नाम संबोधन सुना। राष्ट्रपति ने पहले अंग्रेजी में देश को संबोधित किया तो उसके बाद हिंदी में संबोधन की जानकारी टीवी स्क्रीन पर फ्लैश हुई तो पता चला कि प्रणव मुखर्जी साहब हिंदी में भी बोलते हैं लेकिन दुख के साथ ही हैरानी तब हुई जब देखा कि राष्ट्रपति जी अंग्रेजी में ही बोल रहे हैं और दाहिनी तरफ नीचे एक छोटी विंडो में डीडी न्यूज का एक एंकर उसका हिंदी में अनुवाद कर रहा था। देश है हिदुंस्तान लेकिन देश के राष्ट्रपति आम दिन तो छोड़िए गणतंत्र दिवस पर भी हिंदी बोलने से परहेज करते दिखाई दिए।
14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एकमत से यह निर्णय लिया कि हिंदी ही भारत की राजभाषा होगी औऱ तब से ही हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। दुनिया में करीब 60 करोड़ लोग हिंदी बोलते हैं और भारत में हिंदी को बढ़ावा देने के लिए सरकारी दफ्तरों में भी हिंदी को ही तरजीह देने की बातें की जाती हैं लेकिन जब देश का प्रथम नागरिक गणतंत्र दिवस पर 121 करोड़ भारतीयों के सामने हिंदी को तिलांजलि देकर अंग्रेजी को तरजीह देते हुए दिखाई देता है तो दुख होना लाजिमी है।
चलिए अंग्रेजी के ही सही राष्ट्रपति के संबोधन की अगर बात करें तो वैसे तो ये संबोधन अपने आप में सब कुछ समेटे हुए था लेकिन पूरा सुनने के बाद यहां भी एक उम्मीद धराशायी होती दिखाई दी। राष्ट्रपति ने 1947 से लेकर 2013 तक की बात की। दिल्ली गैंगरेप की घटना पर चिंता जतायी तो सीमा पर पाकिस्तान की बर्बरता पर दुख जताते हुए पाकिस्तान को चेताया भी। प्रणव मुखर्जी ने युवाओं की चिंता की तो साथ ही आने वाले 10 सालों में पिछले 60 सालों से ज्यादा तरक्की और बदलाव की उम्मीद भी जतायी।
राष्ट्रपति ने महत्वपूर्ण मुद्दों पर चिंता जताते हुए लोगों को नया सवेरा होने का भरोसा तो दिलाया लेकिन बड़ा अच्छा लगता अगर राष्ट्रपति अपने भाषण की शुरूआत संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु की दया याचिका खारिज करने की बात के साथ करते। चूंकि 2005 से अफजल की दया याचिका गृह मंत्रालय से राष्ट्रपति भवन के बीच घूम रही है ऐसे में राष्ट्रपति अपने दफ्तर से एक फाइल और देश से एक आतंकी को कम करने की शुरुआत करते तो अच्छा लगता लेकिन अफसोस ऐसा नहीं हुआ..!
राष्ट्रपति ने आतंकवाद से लेकर नक्सलवाद तक पर चिंता जतायी लेकिन प्रणव मुखर्जी संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु के नाम पर आतंक के अंत का पहला अध्याय गणतंत्र दिवस पर अपने हाथों से लिखते तो शायद देशवासियों की खुशी दोगुनी हो जाती लेकिन अफसोस ऐसा नहीं हुआ।
राष्ट्रपति ने भारत की चुप्पी को उसकी कमजोरी न समझने की चेतावनी तो पाकिस्तान को दी लेकिन लोकतंत्र के मंदिर पर हमला करने वाले की फांसी का रास्ता साफ करने के साथ प्रणव मुखर्जी पाकिस्तान को चेतावनी देते तो ये ज्यादा असरदार होती लेकिन अफसोस ऐसा नहीं हुआ।
64वें गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के संबोधन ने देशवासियों की उम्मीदों को नए पंख लगाने की कोशिश तो की लेकिन ये कोशिश वास्तव में कितनी साकार हो पाएगी ये तो वक्त ही बताएगा।
उम्मीद करते हैं आने वाली 15 अगस्त पर राष्ट्रपति का संबोधिन देश को हिंदी में सुनने को मिलेगा और अफजल गुरु की फांसी का रास्ता साफ होने का जिक्र भी राष्ट्रपति के संबोधन में होगा...इसी उम्मीद के साथ आप सभी को 64वें गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं। जय हिंद।

deepaktiwari555@gmail.com

हेडली पर हल्ला...अफजल पर खामोश क्यों..?


मुंबई आतंकी के हमले में मदद करने के आरोपी डेविड हेडली को अमेरिकी अदालत ने भले ही 35 साल कैद की सजा सुनी दी हो लेकिन भारत सरकार ने हेडली को दी गई सजा को नाकाफी बताते हुए कहा कि हेडली को मृत्युदंड दिया जाना चाहिए। इसके साथ ही भारत ने अमेरिका से हेडली के प्रत्यपर्ण की भी मांग दोहराई है।
निश्चित तौर पर मुंबई हमला जिसमें 6 अमेरिकी समेत 166 लोगों की मौत हो गई थी में शामिल आतंकी हेडली को बख्शा नहीं जाना चाहिए और उसे मौत की सजा दी जानी चाहिए लेकिन क्या भारत सरकार के साथ ही कांग्रेस के नेताओं को ये कहने का हक है...? ये सवाल आपको भले ही अटपटा लगे लेकिन भारत की संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु को घटना के 12 साल बाद भी फांसी की सजा न होना और अफजल की फांसी को लटकाए रखने के सवाल के बाद शायद आप इस बात से सहमत हों कि सरकार हेडली को मौत की सजा की मांग करने का हक क्यों नहीं है..?
सरकार हेडली के भारत प्रत्यर्पण के बाद भारतीय अदालत में केस चलाने की बात कर रही है लेकिन अफजल को फांसी क्यों नहीं दी गई इसका जवाब हमारी सरकार के पास नहीं है जबकि सुप्रीम कोर्ट 4 अगस्त 2005 को अफजल की फांसी की सजा पर मुहर लगा चुका है। 13 दिसंबर 2012 को हमारे गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने कहा था कि वे 22 दिसंबर 2012 को संसद का शीतकालीन सत्र समाप्त होने के बाद अफजल गुरु की फाइल पढ़ेंगे लेकिन शिंदे के पास हिंदुओं को तो आतंकवादी साबित करने का समय है लेकिन संसद पर हमले के आरोपी अफजल की फाइल पढ़ने का वक्त नहीं है..!
मुंबई हमले के आरोपी कसाब का केस ही ले लें...कसाब की फांसी की फाइल लंबे समय तक राष्ट्रपति और गृहमंत्रालय के बीच घूमती रहती है और आखिरकार लंबी जद्दोजहद के बाद एक दिन गुपचुप कसाब को फांसी दे दी जाती है...हालांकि कहा तो ये तक जा रहा है कि कसाब की मौत डेंगू से हो गई थी..!   
ये सवाल इसलिए भी उठते हैं क्योंकि हमारी सरकार का रवैया सीमा पार से घुसपैठ पर भारत में घुसकर वारदात को अंजाम देने वाले आतंकियों के प्रति तो नरम दिखाई देता है लेकिन हमारे देश के गृहमंत्री हिंदू आतंकवाद के नाम को जन्म देकर दुनिया में ये साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते कि भारत एक आतंकवादी राष्ट्र है..!
हमारी सरकार खुद को हाथ पर हाथ धर कर बैठी है लेकिन अमेरिका में हेडली को सजा सुनाई जाती है तो आप उस पर बयान देने में देर नहीं करते। हम सरकार की इस मांग के साथ हैं कि हेडली का प्रत्यर्पण हो और उसे मौत की सजा मिले लेकिन मन में आशंका भी उत्पन्न होती है कि प्रत्यर्पण के बाद अगर हेडली को फांसी की सजा हो भी गई तो क्या गारंटी है कि हेडली को फांसी पर लटका दिया जाएगा..? क्या गारंटी है कि हेडली देश का दूसरा अफजल गुरु नहीं बनेगा..? जब तक सरकार संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु को फांसी नहीं देगी तब तक सरकार की नीयत पर सवाल उठते रहेंगे।

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गुरुवार, 24 जनवरी 2013

नहीं चाहते दलित गृहमंत्री..!


गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने आंतकवाद को धर्म और जाति से जोड़कर अल्पसंख्यक वोटों के लिए हिंदू आतंकवाद के नाम को जन्म क्या दिया मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा ने इसे राष्ट्र अपमान से जुड़ा मुद्दा बताते हुए सड़क से संसद तक आर पार की लड़ाई का एलान कर दिया है। कांग्रेस ने शिंदे के बयान से किनारा जरूर कर लिया है लेकिन विवादित बयान देने में माहिर कांग्रेस के पेटेंट नेता दिग्विजय सिंह ने एक तीर से दो निशाने साधते हुए इस मुद्दे पर आरपार की लड़ाई का एलान कर चुकी भाजपा पर ही दलित विरोधी होने का आरोप लगाते हुए पलटवार कर दिया है।
दिग्विजय सिंह कहते हैं कि भाजपा को एक दलित गृहमंत्री बर्दाश्त नहीं हो रहा है इसलिए भाजपा गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे का इस्तीफा मांग रही है। दिग्विजय सिंह ने न सिर्फ इस बयान के जरिए अल्पसंख्यक वोटबैंक के लिए कांग्रेस की इस चाल का बचाव किया है बल्कि गृहमंत्री शिंदे की जाति के नाम पर भाजपा पर वार करते हुए दलित वोटबैंक पर भी सेंध लगाने की कोशिश की है।
शिंदे की आलोचना के बाद कांग्रेस भले ही गृहमंत्री के बयान से किनारा करते हुए आतंकवाद की कोई धर्म या जाति न होने की बात कर रही हो लेकिन कांग्रेस का दोहरा चरित्र देखिए दिग्विजय सिंह सरीखे नेता बार बार शिंदे के बयान का समर्थन करते हैं। यानि कांग्रेस ने शिंदे बयान से किनारा भी कर लिया और अपने कुछ नेताओं को इसका समर्थन करने के लिए खुला छोड़ कर इसके बहाने अल्पसंख्यक वोटबैंक को झपटने की भी कोशिश कांग्रेस कर रही है। दिग्विजय सिंह तो दो कदम आगे निकलकर अब दलित वोटबैंक पर भी नजरें गड़ा दी हैं।
इस सब से ये तो जाहिर होता ही है कि राजनीतिक दल और उनके नेता वोटबैंक के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं और इसके लिए नैतिक अनैतिक हथकंडे अपनाने से भी परहेज नहीं करते। 2014 के आम चुनाव से पहले जयपुर में कांग्रेस के चिंतन शिविर में गृहमंत्री के श्रीमुख से निकला हिंदू आतंकवाद शब्द भी इसकी एक कड़ी है...जिसे आगे बढ़ाया दिग्विजय सिंह सरीखे नेताओं ने।
बहरहाल हिंदू आतंकवाद के शब्द को जन्म देने वाले गृहमंत्री शिंदे के बयान को कहीं से भी सही नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि आतंकवाद की न तो कोई जाति होती और न ही धर्म...ऐसे में शिंदे के साथ ही उनके बयान का समर्थन करने वाले कांग्रेसी नेताओं मणिशंकर अय्यर, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और सलमान खुर्शीद जैसे दूसरे तमाम कांग्रेसी नेताओं की सोच पर तरस आता है और इससे भी ज्यादा तरस आता है इस देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कहलाने वाले कांग्रेस पर..!
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सरकार बनी तो देख लेंगे..!


भाजपा अध्यक्ष पद पर गडकरी की दोबारा ताजपोशी करने के लिए भाजपा ने पार्टी के संविधान में तक संशोधन कर डाला लेकिन गडकरी के सितारे कुछ ज्यादा ही गर्दिश में थे जिसके चलते आखिरी वक्त में गडकरी की कुर्सी खिसक गई और राजनाथ सिंह बन गए भाजपा अध्यक्ष। कुर्सी जाने के अगले ही दिन नागपुर में गडकरी का नया रंग भी देखने को मिला। गडकरी न सिर्फ खुद के निर्दोष होने के दावा करते हैं बल्कि पूर्ति ग्रुप की सहयोगी कंपनियों पर आयकर सर्वे को साजिश करार देते हैं।
गडकरी यहां रूक जाते तो ठीक था लेकिन गडकरी ने तो आयकर विभाग के अधिकारियों को खुली धमकी दे डाली और कहने लगे कि अगर भाजपा सत्ता में आ गई तो उन्हें बचाने सोनिया गांधी या पी चिदंबरम नहीं आने वाले। गडकरी ने कांग्रेस पर प्रहार करते हुए ये तक कह डाला कि कांग्रेस में एक मालकिन हैं और बाकी सब नौकर। अध्यक्ष न बनने पर गडकरी का दर्द समझा जा सकता है लेकिन ये दर्द 24 घंटों में ही बौखलाहट के रूप में निकल कर सामने आएगा इसकी उम्मीद नहीं थी।
जाहिर है भाजपा अध्यक्ष पद की कुर्सी को लेकर गडकरी का दर्द इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि गडकरी की कुर्सी उस वक्त पर खिसकी जब शायद गडकरी ये मान कर निश्चिंत हो गए होंगे की उनकी राह अब आसान है लेकिन ऐन वक्त पर पूर्ति ग्रुप से जुड़ी कंपनियों पर आयकर विभाग के सर्वे ने सारा खेल बिगाड़ दिया ऐसे में गडकरी को गुस्सा तो आना ही था..! अब ये अलग बात है कि गडकरी की ये बौखलाहट नागपुर में अपने समर्थकों के सामने बाहर आई।
नागपुर में गडकरी भले ही अब अध्यक्ष पद की मर्यादा में न बंधे होने की बात कहते हुए विरोधियों को सबक सिखाने की बात कर रहे हैं लेकिन भाजपा अध्यक्ष रहते हुए...मर्यादा में बंधे रहते हुए भी गडकरी ने शायद ही कभी इस मर्यादा को निभाया हो क्योंकि ये गडकरी ही हैं जिन्होंने स्वामी विवेकानंद की तुलना अंडरवर्लड डॉन दाऊद इब्राहम से कर दी थी।
ये गडकरी ही थे जिन्होंने भदोही की औराई विधानसभा सीट में चुनाव प्रचार के दौरान रैली को संबोधित करते हुए विरोधी पार्टियों के नेताओं के लिए कहा था कि...इधर गधे-उधर गधे, सब तरफ गधे ही गधे, अच्छे घोड़ों को नहीं घास और गधे खा रहे हैं च्यवनप्राश 
ये गडकरी ही थे जिन्होंने संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को कांग्रेस के दामाद कहकर बवाल मचा दिया था। इसके अलावा भी कई बार गडकरी अपनी जबान नहीं संभाल पाए थे। 
अब तो गडकरी अध्यक्ष रहे नहीं...गडकरी के हिसाब से वे अब पद की मर्यादा में भी नहीं बंधे हैं ऐसे में देखना ये होगा कि आने वाले दिनों में गडकरी अपनी जुबान संभाल पाते हैं या फिर उनकी फिसलन भरी जुबान समय समय पर सियासी भूचाल पैदा करती रहेगी। 
बहरहाल गडकरी की इस बयान से इतना जरूर साबित हो गया है कि सत्ता में रहने पर नेता अधिकारियों पर किस कदर रौब जमाते होंगे और नेताओं का आज्ञाकारी न बनने पर सरकारी अधिकारियों कर्मचारियों की क्या हालत होती होगी क्योंकि जब विपक्ष में रहकर गडकरी जैसे नेता आयकर विभाग के अधिकारियों को खुलेआम धमका सकते हैं तो गलती से सत्ता में आने पर वे क्या गुल नहीं खिलाएंगे।  

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बुधवार, 23 जनवरी 2013

लोकतंत्र की हत्या..!


भारतीय जनता पार्टी को आखिर राजनाथ सिंह के रूप में नया राष्ट्रीय अध्यक्ष मिल ही गया। पार्टी विद डिफरेंस और आंतरिक लोकतंत्र की बात करने वाली भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का चयन भले ही निर्विरोध हुआ हो लेकिन ये चयन अपने आप में कई सवाल खड़े कर गया..! क्या पार्टी का कोई भी नेता पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने का इच्छुक नहीं था..? क्या गडकरी के चुनाव लड़ने इंकार करने के बाद क्या राजनाथ सिंह वाकई में अपनी मर्जी से पार्टी अध्यक्ष बनना चाहते थे..?
जाहिर है ऐसा नहीं रहा होगा और कई भाजपा नेताओं के मन में पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने का सपना रहा होगा या कहें अभी भी जिंदा होगा लेकिन फिर सवाल उठता है कि इंटरनल डेमोक्रेसी की बात करने वाली भाजपा ने क्यों 2009 में गडकरी की तरह इस बार गडकरी के नाम पर विरोध के बाद राजनाथ सिंह को अध्यक्ष बना दिया। क्यों पार्टी ने अध्यक्ष पद के लिए चुनाव कराकर भी एक तरह से नहीं कराया..? हालांकि इस सवाल का जवाब भाजपा नेता कुछ यूं देंगे कि किसी भी नेता ने नामांकन ही नहीं कराया ऐसे में राजनाथ को निर्विरोध चुना गया और ये चुनावी प्रक्रिया के तहत हुआ है लेकिन क्या वास्तव में ऐसा ही हुआ है जैसा दिख रहा है या भाजपा द्वारा दिखाया जा रहा है..!
भाजपा नेता कुछ भी कहें लेकिन पर्दे की पीछे की सच्चाई भाजपा के इंटरनल डेमोक्रेसी के दावे को खोखला बनाती नजर आती है और ये सब संचालित हो रहा है एक्सटरनल ताकतों(आरएसएस) के द्वारा। दरअसल ये सौ फीसदी सच है कि भाजपा में वही होता है जो संघ चाहता है...वही 2009 में गडकरी को अध्यक्ष भी बनाता है और वही 2013 में भी गडकरी को दोबारा अध्यक्ष बनाना चाहता था...इसके लिए बकायदा पार्टी के संविधान में संशोधन भी होता है लेकिन गडकरी की कंपनी पर घालमेल के आरोप पर भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के विरोध के चलते गडकरी दोबारा अध्यक्ष नहीं बन पाए लेकिन इसके बाद भी राजनाथ सिंह का अध्यक्ष बनना भी संघ की मर्जी से ही संभव हुआ है।
बात सिर्फ राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी तक ही सीमित रहती तो समझ में आता है लेकिन अमूमन यही हाल भाजपा में प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव से लेकर तमाम छोटे बड़े पदों पर नेताओं की नियुक्ति पर भी होता है। ज्यादा दूर या पीछे जाए बिना अगर उत्तराखंड राज्य का ही उदाहरण ले लें तो तस्वीर साफ हो जाती है कि भाजपा में इंटरनल डेमोक्रेसी की कैसे पार्टी का शीर्ष नेतृत्व खुद धज्जियां उड़ाता है। उत्तराखंड प्रदेश अध्यक्ष का मसला चुनाव की तारीख घोषित होने के बाद भी नहीं तय हो पाया है क्योंकि कुर्सी के लिए एक नाम पर सहमति नहीं है और दो नेता अध्यक्ष का चुनाव लड़ना चाहते थे।
दोनों नेताओं तीरथ सिंह रावत और त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने बकायदा नामांकन भी दाखिल कर दिया लेकिन पार्टी ने चुनाव कराने की बजाए नाम वापस लेने की तारीख आगे बढ़ा दी ताकि दोनों पर नाम वापस लेने के लिए दबाव बनाया जा सके और दोनों के नाम वापस लेने के बाद आलाकमान अपनी पसंद के व्यक्ति को प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठा सके। आखिर में यही हुआ और दोनों ने अपना नाम वापस ले लिया और अब सबको इंतजार है आलाकमान की पसंद के प्रदेश अध्यक्ष का..! समझा जा सकता है कि भाजपा में इंटरनल डेमोक्रेसी को कैसे एक्सटरनल ताकतें(संघ) कंट्रोल कर रही हैं और पार्टी नेता चाहकर भी मुंह नहीं खोल पाते।
ऐसा नहीं है कि ये हाल सिर्फ भाजपा में ही है...देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस में भी कुछ ऐसा ही है वहां पर एक्सटरनल ताकत एक परिवार है और वो है गांधी परिवार जो कांग्रेस का पर्याय भी है। शुरु से परिवारवाद ही पार्टी में हावी रहा है। यहां पर एक ही परिवार पूरा पार्टी को चलाता है इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी के उदाहरण हमारे सामने हैं। जाहिर है इच्छाएं यहां भी नेताओं की कुलाचें भरती होंगे लेकिन आलाकमान के फैसले के आगे सब मौन हो जाते हैं। पार्टी के शीर्ष पद पर पहुंचने वाले नेताओं की संख्या ऊंगलियों में गिनी जा सकती है जो इस बात को खुद ब खुद साबित करती है।
बहरहाल जो भी हो लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में देश की दो सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टियों में लोकतंत्र की ये हालत अपने आप में कई सवाल खड़े करती है और मजबूर करती है ये सोचना पर कि क्या ये पार्टियां वाकई में देश चलाने लायक हैं। जिस पार्टी का शीर्ष नेतृत्व अपनी ही पार्टी के लोकतंत्र की हत्या कर देता है उस पार्टी के नेताओं से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की रक्षा करेंगे..?

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गडकरी नपे...वाड्रा बचे..!


चारों ओर चर्चा तो भाजपा अध्यक्ष पद से नितिन गडकरी की कुर्सी खिसकने और राजनाथ सिंह के सिर अध्यक्ष पद का ताज सजने की है लेकिन 22 जनवरी 2013 को चंद घंटों के बीच भाजपा में पल पल बदलते समीकरण के पीछे की कहानी की शुरूआत तो दरअसल आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने दो महीने पहले ही कर दी थी जिसका क्लाइमैक्स गडकरी समर्थकों की आंखों में आंसू दे गया तो राजनाथ सिंह समर्थकों के चेहरे पर जीत की खुशी। अंजलि दमानिया के साथ केजरीवाल ने बीते साल अक्टूबर में गडकरी पर किसानों की जमीन हड़पने का गंभीर आरोप लगाया था इसके बाद गडकरी की कंपनी पूर्ति लिमिटेड पर ही सवाल उठ खड़े हुए और गडकरी की कंपनी में निवेश करने वाली कंपनियों के पते ही फर्जी निकले।
आयकर विभाग ने मामले की जांच शुरु की और 22 जनवरी 2को आयकर विभाग के ताजा सर्वे के बाद अध्यक्ष पद पर गडकरी की दोबारा ताजपोशी के बीच गडकरी के खिलाफ विरोध के झंडे बुलंद होने लगे और आखिरकार शाम होते होते गडकरी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और नए अध्यक्ष के रूप में राजनाथ सिंह की ताजपोशी हो गई। हालांकि संघ की मंशा थी कि 2014 का आम चुनाव भाजपा गडकरी के नेतृत्व में ही लड़े और इसके लिए हरियाणा के सूरजकुंड में बीते साल 28 सितंबर 2012 को भाजपा राष्ट्रीय परिषद की बैठक में गडकरी के दूसरे कार्यकाल के लिए बकायदा पार्टी के संविधान में तक संशोधन किया गया लेकिन गडकरी के ये खुशी ज्यादा दिन नही रह पाई और आईएसी कार्यकर्ता अंजलि दमानिया ने केजरीवाल संग गडकरी पर महाराष्ट्र में किसानों की जमीन हड़पने के संगीन आरोप लगा दिए।
भाजपा से पहले से ही खार खाए बैठी केन्द्र सरकार ने भी हाथ आए इस मौके को लपक कर गडकरी की कंपनियों की जांच के आदेश दे दिए जिसके बाद गडकरी धीरे धीरे भ्रष्टाचार के मकड़जाल में घिरते चले गए।
ये बात अलग है कि केजरीवाल ने सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड्रा पर भी गंभीर आरोप लगाए थे लेकिन वाड्रा तो क्लीन चिट मिल गई तो गडकरी पर आयकर विभाग ने शिकंजा कस लिया। सवाल यहां पर भी खड़ा उठता है कि आखिर कैसे यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी के दाबाद राबर्ट वाड्रा को बहुत ही कम समय में क्लीन चिट दे दी जाती है और गडकरी की कंपनी के ठिकानों पर एक के बाद एक छापेमारी की जाती है..! 
क्या इसे महज एक इत्तेफाक माना जाए या कुछ और..? खैर सच्चाई जो भी हो लेकिन गडकरी की भाजपा अध्यक्ष पद की कुर्सी खिसकने के बाद गडकरी के विरोधियों से ज्यादा खुशी केजरीवाल एंड कंपनी को ही हो रही होगी क्योंकि केजरीवाल एंड कंपनी ने जिन जिन लोगों पर अपने बांउसर फेंके उनमें पहली सफलता उन्हें गडकरी के रूप में ही मिली है।

deepaktiwari555@gmail.com

मंगलवार, 22 जनवरी 2013

ऐसे शिक्षकों को भी तो मिले सजा..!


हरियाणा के जेबीटी घोटाले में पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला…उनके बेटे अजय चौटाला और दो आईएएस अधिकारियों को 10 -10 साल की सजा और दूसरे छोटे बड़े 51 अधिकारियों को सजा सिर्फ भ्रष्टाचार के मामले में दोषियों के सजा नहीं है बल्कि ये सीबीआई कोर्ट का ये फैसला एक नजीर है उन लोगों के लिए जो पैसे और ताकत के बल पर कानून को अपनी बपौती समझते हैं और आम जनता की गाढ़ी कमाई को भ्रष्टाचार और घोटालों में हजम कर जाते हैं। 
1999-2000 में हुए इस घोटाले में फैसला आने में भले ही 13 साल का लंबा वक्त लग गया लेकिन यहां से भारतीय न्याय व्यवस्था के प्रति लोगों में उम्मीद की एक नई किरण भी जगी है। हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री चौटाला और भिवानी से उनके सासंद बेटे ने शायद ये कभी नहीं सोचा होगा कि उनका एक दिन ये हश्र होगा। अपने लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए जेबीटी घोटेले में 3206 शिक्षकों से इन लोगों ने उनकी हैसियत के हिसाब से 3 से 7 लाख रूपए तक वसूल कर जमकर वारे न्यारे किए।
ये तो वो घोटाला है जो खुल गया...इसके अलावा क्या चौटाला ने और घोटालों को अंजाम नहीं दिया होगा..? जाहिर है ऐसे कितने ही घोटाले चौटाला ने चार बार हरियाणा का मुख्यमंत्री रहते हुए अंजाम दिए होंगे..! खैर जो घोटाला उजागर हुआ उसमें चौटाला समेत 55 लोगों को दोषी सजा का एलान होना अपने आप में बड़ी बात है क्योंकि अमूमन भ्रष्टाचार और घोटालों के आरोप से घिरे मामले या तो कोर्ट में सालों से लंबित पड़े हैं या फिर अधिकतर मामलों में सबूतों के अभाव में भ्रष्टाचारी आसानी से बच निकलते हैं।
इस घोटाले में दो आईएएस समेत 51 छोटे बड़े अधिकारियों को भी सजा सुनाई गई है जो कहीं न कहीं ऐसे सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए भी एक सबक हैं जो कई बार भ्रष्टाचार में लिप्त होते हैं या घोटालों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल होते हैं लेकिन कई बार आसानी से बच निकलते हैं। किसी राज्य का मुख्यमंत्री या फिर उसके मंत्री या विभिन्न पदों पर आसीन कोई नेता अगर भ्रष्टाचार कर रहा है या घोटाले को अंजाम दे रहा है तो ऐसा तो संभव नहीं है कि संबधित विभाग के मुखिया या विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों को इसकी भनक न लगे कि यहां कुछ गड़बड़ हो रही है..!
कई बार गडबड़ी से भरी फाइलें इन अधिकारियों और कर्मचारियों की टेबल से गुजरती होंगी लेकिन ये लोग सब कुछ जानकर भी अंजान बने रहते हैं और कई बार जानबूझकर विभागीय अधिकारी गड़बड़ी भरी फाइलों पर दस्तखत कर भ्रष्टाचार और घोटाले का मार्ग प्रशस्त करते हैं...लेकिन इसके खिलाफ आवाज कोई नहीं उठाता...जाहिर है इनका दामन भी पाक साफ नहीं है..! ये लोग अगर ईमानदारी से काम करें तो भ्रष्टाचार को कम करना और घोटालों को होने से रोकना संभव है लेकिन अफसोस ऐसा नहीं होता। हालांकि इसके लिए एक आम आदमी भी उतनी ही जिम्मेदार है जितना कि ये लोग क्योंकि वे लोग भी अपने कामों के लिए रिश्वत देने से परहेज नहीं करते। 
जेबीटी घोटाले में भर्ती हुए शिक्षकों का नौकरी के लिए रिश्वत देना इसका प्रमाणित भी करता है। कोर्ट को ऐसे लोगों को भी कड़ी सजा सुनानी चाहिए जिन्होंने नौकरी के लिए रिश्वत दी और भर्ती होने के बाद मजे से सरकारी तनख्वाह पर ऐश कर रहे हैं। इन्होंने रिश्वत देकर अपना वर्तमान और भविष्य तो बना लिया लेकिन ये स्कूलों में बच्चों का भविष्य खराब कर रहे हैं। जिस शिक्षक ने रिश्वत देकर नौकरी पाई हो वो बच्चों को क्या सीख देगा..?

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सोमवार, 21 जनवरी 2013

आतंकवादी राष्ट्र है भारत..!


भारत की सीमा में घुसकर भारत के दो सैनिकों के सिर कलम करके भारत को ललकारने वाले पाकिस्तान पर तो हमारे गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने मुंह नहीं खोला। भारत के खिलाफ जहर उगलने वाले पाक और उसकी नापाक हरकतों पर शिंदे खामोश रहते हैं। वे चुप्पी तोड़ते हैं तो मुंबई हमले के मास्टरमाइंड हाफिज सईद को श्रीऔर मिस्टर लगाकर संबोधित करते हैं...वे बोलते हैं तो हिंदुओं को आतंकवादी बोलते हैं..! 
वे बोलते हैं तो हिंदुओं पर आतंकी घटनाओं को अंजाम देकर आल्पसंख्यकों को बदनाम करने का आरोप लगाते हैं। सीमा पार से हो रही आतंकियों की घुसपैठ पर उन्हें कोई खुफिया जानकारी या रिपोर्ट नहीं मिलती लेकिन भारत में हिंदु आतंकवाद पनप रहा है और भाजपा और आरएसएस आतंकी शिविर चला रहे हैं इसकी पूरी खुफिया रिपोर्ट गृहमंत्री जी के पास है। अरे शिंदे साहब देश में सीमा पार से हो रही घुसपैठ और आतंकी घटनाएं न रोक सको तो समझ में आता है लेकिन कम से कम अल्पसंख्यक वोटबैंक के चक्कर में देश की सीमा पर विपरित परिस्थितियों में मुस्तैद बैठे हमारे जांबाज सैनिकों का मनोबल तो मत गिराओ। 
आपको तो पाक की नापाक हरकतों पर पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देना था लेकिन आप तो सीमा पार बैठे आतंक के आकाओं को मनोबल बढ़ाने में लगे हो। आपके इस बयान ने तो सीमा पार आराम से बैठे मुंबई हमले के मास्टरमाइंड हाफिज सईद को निर्दोष साबित कर दिया क्योंकि आप कहते हो कि भारत में आतंकी घटनाएं हिंदु आतंकवाद की देन है और अल्पसंख्यकों को बेवजह बदनाम किया जा रहा है।
आपके कड़े तेवर देख तो सीमा पार बैठे आतंक के आकाओं को कांप जाना चाहिए था कि कहीं उसका हाल भी कभी ओसामा बिन लादेन की तरह न हो जाए लेकिन आपने तो अपने ही लोगों पर सवाल खड़े करके भारत में तबाही मचाने के बाद सीमा पार आराम से बैठे आतंकियों को क्लीन चिट दे दी।
नतीजा आपके सामने है...यही हाफिज सईद अब पाकिस्तान में हो रहे आतंकवाद के भारत को जिम्मेदार ठहरा रहा है और तो और भारत पर पाकिस्तान के खिलाफ आतंकवाद को बढ़ावा देने का दुष्प्रचार करने का भी आरोप लगा रहा है। इतना छोड़िए हाफिज सईद की हिम्मत देखिए पाकिस्तान से मांग कर रहा है कि वो कोशिश करे कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत आतंकवादी राष्ट्र घोषित कर दिया जाए।
ये हिम्मत हाफिज सईद में आई कहां से...आपके ही बयान से न शिंदे साहब। आप करते रहिए वोटबैंक की राजनीति और दिलवा कर छोडिए भारत को आतंकवादी राष्ट्र का दर्जा तभी आपका गृहमंत्री की कुर्सी पर बैठना सार्थक होगा..!  आपके बयान से आज एक और बात समझ में आ गई कि आखिर संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु को आजतक फांसी क्यों नहीं दी गई...वो भी कहीं आपके वोटबैंक का हिस्सा तो नहीं..
वैसे भी जब तक आप जैसी सोच वाले नेता गृहमंत्री जैसी महत्वपूर्ण कुर्सी पर बैठे रहेंगे और ऐसे बयान देते रहेंगे तो हाफिज सईद और अफजल गुरु जैसे आतंकियों का सिर गर्व से ऊंचा उठता रहेगा और अपने ही देश में हिंदुस्तानियों का सिर शर्म से झुकता रहेगा..! पता नहीं आप जैसे लोग अपने घरों में अपने परिवार के साथ कैसे रहते हैं..?

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“जहर” और “भावुकता”- कांग्रेस की रणनीति तो नहीं..!


कांग्रेसी कार्यकर्ताओं पर बड़ा करम हो गया कि सोनिया गांधी ने राहुल गांधी को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाते हुए नंबर दो की पोजिशन पर काबिज कर दिया हालांकि ये अलग बात है कि राहुल इससे पहले भी सोनिया के बाद कांग्रेस में नंबर दो ही थे। बकौल राहुल इससे एक दिन पहले उनके पास पहुंची सोनिया गांधी ने रोते हुए ये बताया कि पॉवरजहर के समान है। ये बात सही है कि सोनिया की इस बात का गहरा निहितार्थ है क्योंकि सोनिया ने पराए देश में बहु बनकर आने के बाद अपनी सास और देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और अपने पति और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को सत्ता में रहते हुए खोया है। ऐसे में राहुल को पार्टी उपाध्यक्ष बनाने के बाद भावुकता में अपने बेटे राहुल को ये बात बताना कि पॉवरजहर के समान है कहीं न कहीं सोनिया गांधी के सालों पुराने उस दर्द को ताजा करता है कि जब 31 अक्टूबर 1984 को सोनिया ने अपनी सास इंदिरा गांधी और 21 मई 1991 को अपने पति राजीव गांधी को असमय खोया था। सोनिया ने इस दर्द को करीब से महसूस किया है क्योंकि राजीव गांधी की हत्या के वक्त उनके बच्चों राहुल गांधी की उम्र सिर्फ 21 साल तो प्रियंका गांधी की उम्र 20 साल थी। सोनिया ने कहीं न कहीं राहुल को ये एहसास कराने की कोशिश की कि सत्ता ने उनके परिवार को न सिर्फ तोड़ा है बल्कि एक तरह से तहस नहस कर दिया है। ऐसे में इसके बाद भी राहुल को बड़ी जिम्मेदारी देकर 2014 की जिम्मेदारी सौंपना सोनिया के लिए आसान फैसला नहीं था लेकिन सोनिया ने इसके बाद भी न सिर्फ खुद इस जहर के प्याले को हाथ में उठाया बल्कि अपने बेटे राहुल गांधी को भी इस प्याले को तस्तरी में सजाकर देने की कोशिश की। 2014 के आम चुनाव से पहले चिंतन शिविर में राहुल गांधी को उपाध्यक्ष घोषित कर कांग्रेस ने अघोषित तौर पर राहुल गांधी को 2014 में कांग्रेस का पीएम उम्मीदवार भी घोषित कर दिया ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या राहुल का अपने भाषण में अपनी मां के रोने का जिक्र करना 2014 तक कांग्रेस के प्रति अपने प्रति एक भावुक माहौल तैयार कर सत्ता हासिल करने की ओर एक कदम है..? कांग्रेस का 2014 से ऐन पहले राहुल को प्रोजेक्ट किया जाना...राहुल का भावुक्ता भरा भाषण और यूपीए की हैट्रिक की चिंता वो भी ऐसे वक्त पर जब यूपीए-2 का कार्यकाल भ्रष्टाचार, घोटलों और विवादों से भरपूर रहा है...जाहिर है ये राह आसान तो बिल्कुल भी नहीं हैं...तो क्या राहुल का भावुकता भरा भाषण किसी रणनीति का तो हिस्सा नहीं था..! खैर राहुल ने कमान संभाल ली है और फैसला देश की जनता को करना है...ऐसे में ये देखना रोचक होगा कि देश की आवाम 2014 में वोट करने वक्त यूपीए – 2 का कार्यकाल अपने जेहन में रखती है या फिर सोनिया का रोना और राहुल का भावुक भाषण। हम तो बस बड़ी जिम्मेदारी के साथ नई पारी की शुरुआत करने पर राहुल गांधी को बधाई और शुभकामनाएं ही दे सकते हैं।

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रविवार, 20 जनवरी 2013

चिंतन शिविर- चिंता कम हुई या बढ़ गयी..?


कांग्रेस का चिंतन शिविर राहुल गांधी को कांग्रेस में आधिकारिक रूप से नंबर दो की पोजीशन में पहुंचाने के साथ खत्म हुआ हालांकि राहुल गांधी सोनिया के बाद पहले भी नंबर दो थे ऐसे में चिंतन शिविर की खोज उपाध्यक्ष राहुल गांधी पर किसी को आश्चर्य तो नहीं ही हुआ होगा। लेकिन बडा सवाल ये है कि क्या जयपुर में तीन दिन तक चले चिंतन शिविर के बाद वाकई में कांग्रेस की चिंता कम हुई है या फिर बढ़ गई है..!  चिंतन शिविर के पहले दिन सोनिया गांधी ने कांग्रेस के खिसकते वोटबैंक पर चिंता जताई तो दूसरे दिन पूरा माहौल राहुलमय दिखाई दिया और कांग्रेसियों को पार्टी के खिसकते वोटबैंक को बचाने और 2014 में यूपीए की हैट्रिक के लिए राहुल से बेहतर विकल्प नहीं दिखा लिहाजा कांग्रेस कोर कमेटी ने भी देरी नहीं कि और राहुल गांधी को महासचिव की कुर्सी से उपाध्यक्ष की कुर्सी पर बैठा दिया। दरअसल भ्रष्टाचार, महंगाई और सरकार के कई फैसलों को लेकर सवालों में घिरी मनमोहन सरकार के लिए 2014 का चुनाव आसान तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता ऐसे में कांग्रेस ने बडी ही चालाकी से राहुल गांधी के नाम पर युवा वोटरों को रिझाने की कोशिश की है और युवाओं के दम पर यूपीए की हैट्रिक लगाने की तैयारी कर ली है। राहुल को आधिकारिक तौर पर पार्टी में नंबर दो की पोजीशन में बैठाना इसकी शुरूआत है। 8 साल के राजनीतिक जीवन में तीन बडे राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जीत न दिला पाना भी राहुल चैप्टर का हिस्सा रहा तो 2009 में उत्तर प्रदेश में पार्टी की सीटों की संख्या 9 से 21 तक पहुंचाना राहुल की एकमात्र उपलब्धि के तौर पर गिना जाता है। हालांकि इन 8 सालों में राहुल ने ताकत तो पूरी लगाई लेकिन इसका ठीकरा सीधे सीधे राहुल के सिर नहीं फूटा क्योंकि वे हमेशा पर्दे के पीछे से ही कांग्रेस की नैया को पार लगाने की कोशिश करते रहे लेकिन अब की बार तस्वीर जुदा है और राहुल को अब फ्रंट फुट पर आकर बैटिंग करनी है। 2014 के आम चुनाव से पहले 2013 में 9 राज्यों के विधानसभा चुनाव राहुल के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। राहुल के लिए इससे भी बड़ी चुनौती युवाओं का भरोसा जीतने की है क्योंकि बीते कुछ समय में देश से जुड़े कई अहम और संवेदनशील मुद्दों पर राहुल की खामोशी ने कई सवाल खडे किए हैं जिसने राहुल की एक नकारात्मक छवि युवाओं के बीच पैदा हुई है ऐसे में राहुल को इस छवि से बाहर निकलने के लिए खासी मेहनत करनी पड़ेगी। कुल मिलाकर राहुल को उपाध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेसी भले ही कांग्रेस की चिंता कम होने की बात कह रहे हों लेकिन वास्तव में कांग्रेस के साथ ही राहुल की भी चिंता बढ़ गई है क्योंकि 42 वर्ष के हो चुके राहुल गांधी के लिए 2014 का चुनाव ही सब कुछ है। 2014 में राहुल का जादू नहीं चला तो फिर राहुल को भी पीएम इन वेटिंग लाल कृष्ण आडवाणी की जमात में आने में देर नहीं लगेगी। चितंन शिविर के तीसरे दिन हालांकि राहुल ने उपाध्यक्ष बनने के बाद पहली बार भाषण देते हुए युवाओं को साथ लेकर आगे बढने की बात कहने के साथ मजे - मजे में सत्ता हासिल करने का दम तो भरा है लेकिन राहुल गांधी भी इस बात को जानते हैं कि ये काम इतना आसान होता तो जयपुर चिंतन शिविर की जरूरत ही नहीं पडती। तीसरे दिन राहुल गांधी के अलावा सत्ता की राह को आसान बनाने के लिए हिंदु आतंकवाद के नाम को जन्म देने वाले गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे को  कैसे भूल सकते हैं जिन्होंने अलंपसंख्यक वोटों के लिए हिंदुओं पर सवाल खड़े कर दिए और हिंदुओं पर अल्पसंख्यकों को बदनाम करने का आऱोप मढ़ डाला। दरअसल ये शिंदे साहब की भी गलती नहीं है...वे बेचारे तो सोनिया की उस चिंता को कम कर रहे थे जो सोनिया ने चिंतन शिविर के पहले दिन जताई थी कि पार्टी का पारंपरिक वोटबैंक खिसक रहा है। अब शिंदे साहब ठहरे कांग्रेस भक्त कैसे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया की चिंता को कम करने के लिए कुछ न करते सो अल्पसंख्यक वोटों को साधने के लिए हिंदु आतंकवाद के नाम को ही जन्म दे दिया।  

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आतंकवादी हैं हिंदु..!


पी चिदंबरम के बाद ये फिर से एक कांग्रेसी ही है और देश के गृहमंत्री की कुर्सी पर ही विराजमान हैं...जो आतंकवाद को धर्म और जाति से जोड़ते हैं। पहले तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदंबरम ये कारनामा करते हैं और भगवा आतंकवादके नए नाम को जन्म देते हैं और अब देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे हिंदु आतंकवाद के नाम को जन्म देते हैं। शिंदे साहब आप राजनीति में हैं...जाहिर है सत्ता तक पहुंचना आपका एकमात्र मकसद रहता है और वोटों का खिसकना आपके माथे पर बल डाल देता है लेकिन वोट बैंक के लिए आप इतना गिर जाएंगे कि आंतकवाद को जाति और धर्म से जोडने लगे। शिंदे साहब देश की सीमा से भारत में घुसपैठ कर रहे आतंकी आपको नहीं दिखाई देते..! हमारे सैनिकों का हमारी सीमा में घुसकर सिर कलम करने वाले पाकिस्तानी सैनिक आपको नहीं दिखाई देते..! संसद में हमला करने वाले आतंकी आपको नहीं दिखाई देते..! 26/11 को मुंबई को दहलाने वाले आपको नहीं दिखाई देते..! इसके साथ ही देश में अलग – अलग हिस्सों में हुई आतंकवादी घटनाएं आपको नहीं दिखाई देते..! आपको दिखाई दे रहा है तो हिंदु आतंकवाद। गजब करते हो महाराज आतंकी हमले करने वाले आतंकवादी क्या किसी घटना को अंजाम देने से पहले वहां मौजूद लोगों की जाति देखते हैं या फिर आतंकी हमले में सिर्फ किसी जाति विशेष के ही लोग ही मारे जाते हैं..? ऐसा तो नहीं है न फिर आप कैसे आतंकवाद को किसी धर्म से किसी जाति से जोड़ सकते हो..! आपने कहा ये अल्पसंख्यकों को बदनाम करने की साजिश है...इसका मतलब तो ये हुआ शिंदे साहब कि आप पहले से ही ये मानकर बैठे हैं कि सिर्फ अल्पसंख्यक ही आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते हैं। शिंदे साहब आतंकवाद की न कोई जाति होती है और न कोई धर्म...वे किसी भी घटना को अंजाम देने से पहले...किसी को मारने से पहले ये नहीं सोचते कि मरने वाले किस जाति के हैं..? वे सिर्फ मानवता के दुश्मन होते हैं और किसी भी मुल्क में अमन और चैन इन्हें बर्दाश्त नहीं होता। इनका सिर्फ एक ही मकसद होता है और वो है सिर्फ तबाही। शिंदे साहब आपके कंधे पर तो देश की सुरक्षा की...देश के लोगों की सुरक्षा की जिम्मेदारी है और आप ही आतंकवाद को धर्म और जाति से जोड़कर देश को बांटने का काम कर रहे हैं..! शर्म करो शिंदे साहब शर्म करो वोटबैंक के लिए देश के दो टुकड़े तो मत करो। शर्म करो..शर्म करो..!!

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