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शनिवार, 19 जनवरी 2013

वाह री कांग्रेस- पार्टी की चिंता...देश की नहीं !


पाकिस्तान हमारी सीमा में दाखिल होकर हमारे सैनिकों के सिल कलम कर देता है लेकिन हमारी सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस पर अपनी प्रतिक्रिया देने में एक सप्ताह का वक्त लगा देते हैं। अब मनमोहन सिंह मामले के ठंडे होने का इंतजार कर रहे थे या फिर उनका खून भी उनकी उम्र के साथ ठंडा पड़ गया है ये तो वे ही बेहतर बता सकते हैं।
हद तो तब हो गयी जब कांग्रेस पार्टी देशहित से जुड़े इस संवेदनशील मुद्दे पर ठोस कार्रवाई करने की बजाए जयपुर में चितंन शिविर में 2014 की चिंता में डूब जाती है। उन्हें देश की सीमा पर तैनात अपने जांबाज सैनिकों की चिंता नहीं है..! उन्हें देश के दुश्मन पाकिस्तान की नापाक इरादों की भनक नहीं है..! उन्हें सीमा पार घुसपैठ की फिराक में घात लगाकर बैठे आतंकियों से देश को बचाने की चिंता नहीं है..!
उन्हें चिंता है तो पार्टी से छिटक रहे उनके पारंपरिक वोट बैंक को बचाने की..! उन्हें चिंता है तो 2014 में तीसरी बार केन्द्र की सत्ता में आने की..! उन्हें चिंता है तो पार्टी के नेताओं में तालमेल की कमी की..! उन्हें चिंता है तो राहुल गांधी को बड़ी जिम्मेदारी देने की..! उन्हें चिंता है तो राहुल गांधी को देश का प्रधानमंत्री बनाने की..!
ये देश की सबसे बड़ी पार्टी है और इस पार्टी का नारा है...कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ। क्या वाकई में कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ है तो फिर इस पार्टी के लोग दुश्मन को सबक सिखाने की हिम्मत क्यों नहीं दिखा पाते हैं..! वो भी तब जब हमारे दो सैनिकों का सिर पाकिस्तानी सैनिक सीमा में घुसकर कलम कर देते हैं...और खुलेआम भारत को चुनौती देते हैं।
इस पार्टी की मुखिया सोनिया गांधी के साथ ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस के पीएम इन वेटिंग राहुल गांधी के पास नेताओं की बेटे-बेटियों की शाही शादियों में शरीक होने का वक्त है..! इनके पास पचमढ़ी और शिमला जैसे हिल स्टेशनों के साथ ही जयपुर में चल रहे चिंतन शिविर में 2014 में सत्ता हासिल करने के साथ ही राहुल गांधी को प्रधानमंत्री कैसे बनाए इसकी चिंता करने का तो वक्त है लेकिन देश के लिए अपनी जान कुर्बान करने वाले वीर सैनिकों के परिवार मिलने का वक्त नहीं है..!
ये छोड़िए इनके पास देश के दुश्मनों से कैसे निपटा जाए इसकी चिंता करने तक का वक्त नहीं है...शायद इसलिए सोनिया और राहुल गांधी पाकिस्तानी सैनिकों की बर्बर कार्रवाई पर चुप रहते हैं और मनमोहन सिंह अपना मुंह खोलने में एक सप्ताह का वक्त लगा देते हैं। सोनिया जी ये वक्त पार्टी की चिंता करने का नहीं देश की चिंता करने का है। ये वक्त सीमा पर विपरीत परिस्थितियों में विपरीत मौसम में मुस्तैदी से तैनात जाबांज सैनिकों की चिंता करने का है। ये वक्त देश को एक मजबूत और दुश्मन को मुंहतोड़ जवाब देने वाली सरकार होने का भरोसा देश की जनता को देने का है। सोनिया जी...काश आप समझ पाती..!

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शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

गैरसैंण- सरकार का पिकनिक स्पॉट..!


9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड राज्य गठन के साथ ही देहरादून को उत्तराखंड की अस्थाई राजधानी घोषित कर दिया गया। राज्य बने हुए 12 साल का वक्त गुजर गया है लेकिन उत्तराखंड को आज तक स्थाई राजधानी नहीं मिल पाई। पहाड़ी राज्य की राजधानी पहाड़ में होने के तर्क के साथ कुमाऊं और गढ़वाल के केन्द्र बिंदु गैरसैंण को प्रदेश की राजधानी बने की मांग शुरु से उठती रही है ताकि पहाड़ में राजधानी होने से विकास की दौड़ में पीछे छूट गए पहाड़ का...पहाड़ में रहने वालों का विकास हो लेकिन अफसोस राज्य गठन के 12 साल बाद भी ये सिर्फ एक सपना ही है।
बहुगुणा सरकार ने भले ही गैरसैंण में कैबिनेट की बैठक कर गैरसैंण में विधानभवन बनाने का ऐलान करते हुए गैरसैंण में विधानभवन की नींव भी रख दी हो लेकिन इसके बाद भी प्रदेश की स्थाई राजधानी का सवाल जहां का तहां खड़ा है क्योंकि सरकार ने प्रदेश की स्थाई राजधानी के मसले पर अपना मुहं नहीं खोला है और न ही गैरसैँण को प्रदेश की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने की ही बात कही है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि जब बहुगुणा सरकार को गैरसैंण को न प्रदेश की स्थाई राजधानी ही बनाना था और न ही ग्रीष्मकालीन राजधानी तो आखिर गैरसैंण में विधानभवन की नींव क्यों रखी गई..? गैरसैंण में जनता के करोड़ों रूपए खर्च क्यों किए जा रहे हैं...?
गैरसैंण में विधानभवन के साथ ही विधायक ट्रांजिट हॉस्टल और अधिकारी कर्मचारी हॉस्टल निर्माण का साफ मतलब ये है कि विधानभवन बनने के बाद गैरसैंण में विधानसभा सत्र तो होगा लेकिन क्या मात्र 2 या 3 दिन का विधानसभा सत्र पहाड़ में कर लेने से पहाड़ का विकास हो पाएगा..? गैरसैंण तक पहुंचने के लिए हवाई मार्ग को तरजीह देने वाले हमारे मुख्यमंत्री और मंत्रीगण क्या हवाई मार्ग से गैरसैंण पहुंचकर पहाड़ के पहाड़ से जीवन का दर्द और पहाड़ के लोगों का मर्म समझ पाएंगे..? विधानभवन बनने के बाद क्या सिर्फ 2 या 3 दिन का सत्र गैरसैंण में करना क्या सच में सरकार की पहाड़ के विकास के प्रति प्रतिबद्धता  है या फिर सत्र के बहाने गैरसैंण बनेगा करोड़ों की लागत से सरकार का एक सरकारी पिकनिक स्पॉट..?
ये सवाल उठने इसलिए भी लाजिमी हैं क्योंकि सरकार ने विधानभवन के निर्माण का ऐलान तो किया लेकिन गैरसैंण को स्थाई तो छोड़िए प्रदेश की ग्रीष्मकालीन राजधानी के सवाल पर सरकार चुप है। विपक्ष के साथ ही कांग्रेस के ही कई नेता और विधायक के साथ ही विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल भी गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने की पैरवी कर चुके हैं लेकिन मुख्यमंत्री ने मुंह नहीं खोला। 12 साल बाद गैरसैंण में विधानभवन के निर्माण की खबर से प्रदेशवासियों में खुशी की लहर थी लेकिन ये खुशी स्थाई राजधानी और ग्रीष्मकालीन राजधानी के सवाल पर सरकार की चुप्पी से पलभर में ही काफिर हो गई
स्थाई राजधानी के मसले पर सरकार की चुप्पी साबित करती है कि हमारे नेता चाहे वे किसी भी पार्टी के क्यों न हो ये नहीं चाहते कि सुगम मैदानी इलाके देहरादून की बजाए किसी दुर्गम पहाड़ी इलाके में प्रदेश की स्थाई राजधानी बने क्योंकि दुर्गम इलाके में राजधानी का मतलब है कि नेता और विधायकों को वहीं रहना होगा जो कि सुगम देहरादून में ऐशो आराम के आदि हो चुके हमारे नेताओं की आदत में नहीं है या कहें कि बस में ही नहीं है। वाकई में पहाड़ी राज्य  राजधानी पहाड़ में...चाहे वो गैरसैंण हो या कोई और जगह बनाना अगर हमारे विधायक और नेतागण दिल से चाहते तो शायद राज्य गठन के वक्त स्थाई न सही अस्थाई राजधानी देहरादून की बजाए गैरसैंण में बना दी गई होती तो स्थाई राजधानी के मसले को सुलझाया जा सकता था लेकिन अफसोस ऐसा नहीं हुआ क्योंकि ये लोग ऐसा कभी चाहते ही नहीं थे। गैरसैंण को 12 वर्ष पूर्व राज्य गठन के वक्त प्रदेश का केन्द बिंदु होने के नाते अस्थाई राजधानी ही बना दिया गया होता तो आज शायद गैरसैंण या कहें कि दुर्गम पहाड़ी इलाकों की तस्वीर कुछ और होती..!
यहां एक सवाल ये भी उठता है कि क्या वाकई में राज्य की राजधानी कहां है इससे प्रदेश के दूसरे इलाकों के विकास की तकदीर तय होती है..?  किसी भी प्रदेश की राजधानी कहीं भी हो लेकिन है तो वो पूरे प्रदेश की राजधानीऐसे में विकास का हक सिर्फ राजधानी और उसके आसपास के इलाकों को ही क्यों मिले..?
राजधानी से दूर दुर्गम और पिछड़े इलाकों के विकास के लिए सरकार और क्षेत्रीय विधायक अगर प्रतिबद्धता दिखाएं तो क्या उन इलाकों की तस्वीर नहीं बदल सकती..? क्या फर्क पड़ता है राजधानी देहरादून में हैगैरसैंण में है या फिर पिथौरागढ़ या उत्तरकाशी में...विकास की गंगा तो राजधानी से पूरे प्रदेश में बहनी चाहिए बस जरूरत है तो पूरे प्रदेश के विकास की सोच की...चाहे वो धारचूला हो या फिर उत्तरकाशी। जरूरत है अंतिम पंक्ति के हर व्यक्ति की तरक्की की सोच की लेकिन अफसोस हमारे राजनेताओं की सोच यहां पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देती है।

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गुरुवार, 17 जनवरी 2013

राहत का झुनझुना...


बढ़ती महंगाई के बीच यूपीए सरकार ने भले ही सब्सिडी वाले रसोई गैस सिलेंडरों की संख्या को 6 से बढ़ाकर 9 कर आमजन को राहत देनी की कोशिश की हो लेकिन डीजल के कीमतें तय करने का अधिकार तेल कंपनियों को देने का फैसला आने वाले दिनों में आम आदमी की जेब पर चौतरफा वार ही करेगा। पेट्रोलियम कंपनियों के अऩुसार उन्हें वर्तमान में डीजल पर 9 रूपए प्रति लीटर का नुकसान हो रहा है। पेट्रोलियम कंपनियां सरकार से लंबे समय से डीजल के दाम बढ़ाने की मांग कर रही थी ऐसे में जब सरकार ने तेल कंपनियों को इसका अधिकार दे ही दिया है तो निश्चित है कि तेल कंपनियां एक झटके में न सही लेकिन धीरे धीरे डीजल के दाम बढ़ाकर आम आदमी को हलाल करेंगी यानि की आने वाले समय में या यूं कहें कि आने वाले कुछ घंटों या कुछ दिनों में ही डीजल कंपनियां दाम बढ़ाकर अपना घाटा पूरा करने की पूरी कोशिश करेंगी। डीजल के साथ दिक्कत ये है कि डीजल के दाम बढ़ने से सिर्फ डीजल महंगा नहीं होगा बल्कि डीजल से उपयोग होने वाली या डीजल से जुड़ी तमाम चीजों के दामों पर इसका असर पड़ेगा। जिसमें माल ढुलाई के साथ ही खेती, परिवहन, बिजली मुख्य रूप से शामिल हैं। तेल कंपनियां जैसे जैसे अपना घाटा पूरा करेंगी वैसे वैसे आम आदमी की जेब खाली होती जाएगी। जिस प्रकार सरकार का सब्सिडी वाले रसोई गैस सिलेंडर की बढ़ी हुई संख्या का लोगों को तुरंत फायदा मिलेगा उसी तरह तेल कंपनियों के हाथ में डीजल के दाम तय करने का सरकार का फैसला लंबे समय तक लोगों की जेब काटता रहेगा। सरकार में शामिल लोग या कांग्रेसी भले ही रसोई गैस सिलेंडरों की बढ़ी हुई संख्या पर वाहवाही लूटते हुए इसे सरकार की उपलब्धि वाली किताब में इसका उल्लेख कर रहे हों लेकिन आम आदमी ये कैसे भूल सकता है कि सब्सिडी वाले रसोई गैस सिलेंडरों की संख्या 6 तक सीमित करने का फैसला भी इसी सरकार का है। ये तो वही बात हुई कि पहले किसी चीज के दाम 10 रूपए बढ़ा दो और विरोध हो तो उसके दाम 5 रूपए कम कर दो...और फिर दाम कम करने का श्रेय ले लो...अऱे महाराज पांच रुपए तो फिर भी दाम बढ़े न। वैसे भी यूपीए सरकार रसोई गैस पर लोगों को राहत देने के लिए सब्सिडी वाले सिलेंडरों की संख्या में ईजाफा नहीं करती तो ये गैस सिलेंडर की आंच यूपीए को 2013 में 9 राज्यों में प्रस्तावित विधानसभा चुनाव और 2014 के आम चुनाव में बुरी तरह झुलसा सकती थी ऐसे में यूपीए ने जल्द ही इस पर राहत देने का फैसला लेने में ही शायद गनीमत समझी। कुल मिलाकर यूपीए सरकार ने आम आदमी को राहत के नाम पर सिर्फ झुनझुना ही थमाया है।

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बुधवार, 16 जनवरी 2013

भ्रष्टाचारियों के लिए सबक


चार बार हरियाणा के मुख्यमंत्री रह चुके इनेलो प्रमुख ओम प्रकाश चौटाला ने सत्ता में रहते हुए शायद ही कभी सोचा होगा कि उनका आखिरी वक्त जेल की सलाखों के पीछे गुजरेगा। 1999-2000 में सत्ता में रहते हुए ये सत्ता का नशा ही था कि चौटाला ने करीब तीन हजार शिक्षकों की फर्जी भर्ती करा दी लेकिन कहते हैं कि पाप का घड़ा एक न एक दिन जरूर फूटता है और इस केस में भी ऐसा ही हुआ और आखिरकार 13 साल के बाद अदालत ने ओम प्रकाश चौटाला और उनके बेटे अजय चौटाला समेत 55 लोगों को इस घोटाले में दोषी माना है।
इस केस को 13 साल का लंबा वक्त जरूर लगा लेकिन इस केस ने लोगों में न्यायपालिका के प्रति एक नया विश्वास पैदा किया है। आज जबकि छोटे से छोटे सरकारी कर्मचारी(सभी नहीं) से लेकर बड़े से बड़ा राजनेता(सभी नहीं) भ्रष्टाचार के समुद्र में गोते लगा रहा हैं और कई बार हमने न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार के मामले देखे हैं जिसने न्यायपालिका पर भी लोगों का विश्वास कम होने लगा था...ऐसे वक्त में एक ऐसे प्रभावशाली राजनीतिक शख्सियत को दोषी ठहराया जाना जो चार बार किसी राज्य का मुख्यमंत्री रहा हो वाकई में अदालत का बड़ा फैसला है और ये फैसला निश्चित ही भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में मील का पत्थर साबित होगा।
अदालत का फैसला ये भी साबित करता है कि गलत काम करने वाला भले ही कितना प्रभावशाली क्यों न हो...उसका वर्तमान और इतिहास कुछ भी रहा हो लेकिन उसके गलत काम उसका भविष्य बिगाड़ने के लिए काफी हैं। चौटाला ने भी ताउम्र सत्ता के नशे में चूर होकर अपनी जिंदगी गुजारी लेकिन अदालत का ये फैसला चौटाला के गलत कामों का ही नतीजा है। इस फैसले से न्यायपालिका में लोगों को भरोसा जरूर मजबूत हुआ है लेकिन इसके बाद भी एक कसक मन में रह जाती है कि चौटाला ने जो काम 1999-2000 में किया था उसका दोष सिद्ध होने में 13 साल का वक्त क्यों लग गया..?
शायद वर्तमान में यही हमारी न्याय व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी है कि अदालत में केस सालों तक लंबित रहता है और फैसला आने में सालों लग जाते हैं। कई बार तो ट्रायल के दौरान लोगों की मौत तक हो जाती है लेकिन ट्रायल खत्म नहीं होता। इस केस को ही देख लें तो इस केस में भी ट्रायल के दौरान 6 लोगों की मौत हो गई।
देश की सर्वोच्च अदालत की ही अगर बात करें तो एक आंकड़े के अनुसार सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामलों की संख्या करीब 60 हजार के करीब है तो देशभर के विभिन्न उच्च न्यायालयों में वर्ष 2011 तक लंबित मामलों की संख्या करीब 43 लाख 22 हजार है। इससे देशभर की विभिन्न अदालतों में लंबित मामलों की संख्या का अंदाजा भी आसानी से लगाया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश के 31 पदों में से 6 रिक्त हैं तो देशभर के उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 895 में से 281 पद खाली पड़े हैं जो कि न्यायालयों में लंबित मामलों की एक वजह है।
लंबित मामलों में अदालतें अगर तेजी दिखाएं और अदालतों में रिक्त पदों को भर दिया जाए तो निश्चित ही न सिर्फ लंबित मामलों में गिरावट आएगी बल्कि लोगों का विश्वास न्याय व्यवस्था के प्रति और गहरा होगा क्योंकि आज भी हमारे देश में बड़ी संख्या में लोग अदालतों में जाने से घबराते हैं। वे ये मानकर बैठे हैं कि कोर्ट में केस जाने पर उसका निपटारा होने में सालों लग जाएंगे और उन्हें कोर्ट के ही चक्कर काटने पड़ेंगे और इसमें उनका समय और पैसा दोनों खर्च होगा जिसका फायदा शातिर किस्म के लोग उठाते हैं। चौटाल के केस से हमारी न्याय व्यवस्था रोशन हुई है और ये उन नेताओं के साथ ही उन प्रभावशाली लोगों के लिए भी सबक है जो ये सोचते हैं कि कानून और व्यवस्था उनकी जेब में है और गलत काम करने पर भी कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इसी उम्मीद के साथ कि अदालतें लंबित मामलों को लेकर गंभीर होंगी और सभी भ्रष्टाचारी एक दिन सलाखों के पीछे होंगे भारतीय न्याय व्यवस्था को सलाम।

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खंडूड़ी होंगे भाजपा के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष..!


ये राजनीति की ही विडंबना है कि जिस नेता को एक दिन पहले तक पार्टी और कार्यकर्ता सिर आंखों पर बैठाने को तैयार रहते हैं वही नेता अगर सत्ता की राह में रोड़ा बनता दिखाई देता है या इसका जरा सा आभास भी होता है तो उसे किनारे होने में ज्यादा वक्त नहीं लगता..! भाजपा में गडकरी चैप्टर का क्लाइमैक्स भी कुछ ऐसा ही दिखाई दे रहा है और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में गडकरी का दूसरा कार्यकाल भी इसकी भेंट चढ़ सकता है..!
भाजपा 2014 में केन्द्र की सत्ता में आने को बेकरार है लेकिन भाजपा की ये बेकरारी पार्टी के नए अध्यक्ष को लेकर अब बेचैनी में बदल गई है। वजह साफ है जिस गडकरी के दूसरे कार्यकाल को मूर्त रूप देने के लिए भाजपा ने अपने संविधान में संशोधन तक कर डाला वहीं गडकरी अब भाजपा की गले की हड्डी बन गए हैं..! गडकरी के लिए सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था लेकिन गडकरी के भाजपा अध्यक्ष के रूप में दूसरे कार्यकाल पर गड़बड़ी उस वक्त शुरु हुई जब गडकरी की कंपनी पूर्ति लिमिटेड में बड़ा घालमेल होने की बात उजागर हुई। गडकरी की अपनी ही कंपनी उनके अध्यक्ष के दूसरे कार्यकाल में सबसे बड़ा रोड़ा बन गई और यूपीए सरकार को भ्रष्टाचार के मुद्दे पर घेरने वाली भाजपा अपनी ही पार्टी के अध्यक्ष के चलते बैकफुट पर आ गई।
दरअसल 2014 के चुनाव में भ्रष्टाचार बड़ा अहम मुद्दा रहेगा और भाजपा यूपीए टू में हुए भ्रष्टाचार और घोटाले को मुद्दा बनाकर कांग्रेस को मात देने की तैयारी कर रही है ऐसे में भाजपा ये कभी नहीं चाहेगी कि जिस मुद्दे को लेकर वो कांग्रेस को मात देने की तैयारी कर रही है वही मुद्दा उसके अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष के चलते उस पर भारी पड़ जाए..! ऐसे में भाजपा के अधिकतर नेता भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे गडकरी की बजाए किसी ऐसे चेहरे को अध्यक्ष के रूप में चाहते हैं जो न सिर्फ ईमानदार और स्वच्छ छवि का हो बल्कि पार्टी में जिसकी सर्व स्वीकार्यता भी है।
राजनीति में ऐसे नेता तो ढूंढ़ना भूसे के ढेर में सुई ढूंढ़ने के बराबर है ऐसे में भाजपा के अंदर सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर वो नाम कौन होगा जो पार्टी में गडकरी की जगह ले सकता है..? ये सवाल इसलिए भी बड़ा है क्योंकि जो भी नेता इस कुर्सी पर विराजमान होगा उसका कद एकाएक बढ़ जाएगा।
बहरहाल भाजपा के अगले राष्ट्रीय अध्यक्ष को लेकर सस्पेंस बरकरार है लेकिन इसी बीच सूत्रों के हवाले से अंदर की खबर ये है कि इस कुर्सी के लिए भाजपा में दो नामों उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी और हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार के नाम पर भी मंथन हुआ है..! खबर ये भी है कि इस दौड़ में भ्रष्टाचार के आरोपों से अछूते रहे...ईमानदार और स्वच्छ छवि के माने जाने वाले बीसी खंडूड़ी आगे चल रहे हैं और सब कुछ ठीक ठाक रहा तो गडकरी के बाद बीसी खंडूड़ी भाजपा के अगले राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान हो सकते हैं..!

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मंगलवार, 15 जनवरी 2013

लेकिन इनका खून नहीं खौलता..!


कांग्रेस में दो चीजें खास हैं मनमोहन सिंह और राहुल गांधी...दोनों में भी एक चीज खास है...मनमोहन सिंह देश के पीएम हैं तो राहुल गांधी कांग्रेसियों के पीएम इन वेटिंग। देश में कुछ हो जाए मनमोहन सिंह मुंह नहीं खोलते और राहुल गांधी मुंह नहीं दिखाते। दोनों अचानक से जाने कहां अंर्तधान हो जाते हैं। मौनी बाबा की आवाज सुनने को लोग तरस जाते हैं लेकिन मौनी बाबा का मौन नहीं टूटता और राहुल गांधी तो ढूंढ़े नहीं मिलते। गनीमत है सीमा पर भारतीय सैनिकों के साथ पाकिस्तान की बर्बरता पर पूरे एक सप्ताह बाद मनमोहन सिंह को बोलने अनुमति मिली। मनमोहन सिंह अपना मौन इस घटना के तुरंत बाद तोड़ लेते तो और ज्यादा प्रसन्नता होती। खैर देर आए दुरुस्त आए और पाकिस्तान के खिलाफ आपकी कठोर वाणी सुनकर अच्छा लगा लेकिन कांग्रेस युवराज राहुल गांधी को लगता है अभी तक फुर्सत नहीं मिली है। वो शायद अभी भी अंदरखाने कांग्रेस को मजबूत करने में लगे हैं..! वैसे राहुल जड़ों तक जाकर कांग्रेस को कितना मजबूत कर रहे हैं इसका नतीजा हम पहले बिहार, फिर उत्तर प्रदेश और गुजरात के विधानसभा चुनाव में देख चुके हैं। खैर राहुल गांधी कुछ ज्यादा ही व्यस्त हैं और ये व्यस्तता उनके लिए लगता है देश से भी बढ़कर है..! राहुल गांधी केन्द्र सरकार की योजनाओं का तो खूब बखान करते हैं लेकिन देश के लिए वे मुंह नहीं खोलते..! वे यूपीए सरकार में भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे मंत्रियों की तो खूब पैरवी करते हैं लेकिन देश के लिए शहीद सैनिकों की शहादत पर मुंह नहीं खोलते..! वे विपक्ष पर भ्रष्टाचार के आरोपों पर तो खूब बरसते हैं लेकिन हमारे सैनिकों का सिर कलम करने वाले पड़ोसी पाकिस्तान के खिलाफ वे कुछ नहीं बोलते..! कांग्रेस पर कोई आरोप लगाए तो राहुल गांधी खूब गुर्राते हैं लेकिन देश की सरहद में घुसकर पाकिस्तानी भारत पर वार करते हैं तो राहुल गांधी का खून नहीं खौलता..! प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो रिमोट संचालित हैं और उनकी चुप्पी समझ में आती है..! लेकिन राहुल गांधी के मामले में मेरा सामान्य ज्ञान लगता है थोड़ा कमजोर हैं..! राहुल गांधी क्या चीज है समझने की बहुत कोशिश की लेकिन समझ में नहीं आया..! इतना जरूर समझ आया कि इनके लिए देशभक्ति मायने नहीं रखती..! आपके पास जवाब हो तो जरूर शेयर कीजिएगा

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सोमवार, 14 जनवरी 2013

“लातों के भूत बातों से नहीं मानते”


पता नहीं क्यों लेकिन पाकिस्तान की एक - एक हरकत में उसका दोहरा चरित्र और हिंदुस्तान के प्रति नफरत ही झलकती है...जो किसी भी हिंदुस्तानी का खून खौलाने के लिए काफी है। पाकिस्तान आज भले ही हिंदुस्तानियों की नजर में भारत का दुश्मन नंबर एक हो लेकिन इस बात को नहीं नकारा जा सकता कि पाकिस्तान का जन्म हिंदुस्तान के गर्भ से ही हुआ था। पाकिस्तान की नसों में हिंदुस्तान के प्रति इतना जहर किसने भरा..? क्या ये पाकिस्तान में बैठे भारत के दुश्मन हैं या फिर पाकिस्तान में बैठे पाकिस्तान के ही दुश्मन हैं..? ये अपने आप में बड़ा सवाल है लेकिन इसका जवाब बहुत सीधा सा है कि ये लोग न तो भारत के दुश्मन हैं और न ही पाकिस्तान के दुश्मन हैं..! ये लोग अमन के दुश्मन हैं जो पाकिस्तानी हुकमुरानों की नसों में रह रहकर भारत के खिलाफ नफरत का जहर भरते रहते हैं। ये अमन के दुश्मन कभी नहीं चाहते कि पाकिस्तान और भारत के संबंध मधुर हों और शायद जब जब ऐसी कोई कोशिश भारत की तरफ से की जाती है...तो यही अमन के दुश्मन किसी न किसी ऐसा नापाक हरकत को अंजाम दे देते हैं कि दोनों देशों की बीच की जो खाई इन्होंने तैयार की है वह और चौड़ी हो जाती है। 1947 के बाद से ही लगातार कई बार पाकिस्तान ने अपनी नापाक हरकतों से जाहिर कर दिया कि पाकिस्तान के साथ अमन की उम्मीद करना बेमानी है लेकिन भारत सरकार ने इसके बाद भी आजादी के बाद से ही लगातार अमन की उम्मीदों के दीए जो जलाए रखा लेकिन पाकिस्तान ने हर बार सिर्फ पीठ पर वार ही किया है। पाकिस्तान की नापाक हरकतें इस कहावत को चरितार्थ करती है कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते यानि कि बर्दाश्त की हद से बाहर निकलकर अब वक्त आ गया है कि पाकिस्तान को उसकी भाषा में सबक सिखाया जाए। ज्यादा नहीं तो कम से कम जिस - जिस पोस्ट पर पाकिस्तानी सैनिक सीजफायर का उल्लंघन करें उस पोस्ट को नेस्तानाबूद कर पाकिस्तान को सबक सिखाया जाए कि हिंदुस्तानी सैनिकों की बंदूकों और तोपों में भी असली गोला बारूद भरा है। घटना के बाद पाकिस्तान का इस घटना अंजाम देने से इंकार करना उसकी पुरानी फितरत है...ऐसे में भारत को पाकिस्तान की बातों पर विश्वास कभी नहीं करना चाहिए। सीमा पर सैनिकों के साथ बर्बरता को शरारती तत्वों की हरकतें मानकर इसे नजरअंदाज करना न सिर्फ शहीदों का बल्कि पूरी भारतीय सेना और देश की आवाम का भी अपमान होगा। पाकिस्तान को न सिर्फ जैसे को तैसे की तर्ज पर सबक सिखाया जाना चाहिए बल्कि भारत को पाकिस्तान के साथ सभी प्रकार के कूटनीतिक संबंध भी खत्म कर देने चाहिए ताकि पाकिस्तान को ये एहसास हो कि भारत अपना और अपने वीर सैनिकों का अपमान कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता चाहे इसके लिए उसे अपने पड़ोसी से सभी मोर्चों पर मुंह क्यों न फेरना पड़े। पाकिस्तान के साथ ये सब इसलिए भी जरूरी है क्योंकि पाकिस्तान ने शांति वार्ता को हमेशा भारत की कमजोरी समझा है और जब – जब भारत ने अमन की उम्मीद को शांती के दीपों से रोशन करने की कोशिश की है तब तब पाकिस्तान ने कभी सीमा पर अपने सैनिकों के जरिए तो कभी आतंक के सौदागरों के जरिए भारत में खून की होली खेलकर भारत के कई परिवारों को कभी न खत्म होने वाले अंधेरे में धकेलने का काम किया है...ऐसे पाकिस्तान से अमन और शांती की उम्मीद करना बेमानी ही होगी।

deepaktiwari555@gmail.com

रविवार, 13 जनवरी 2013

बेबस मुख्यमंत्री बेबस सरकार..!


दिल्ली गैंगरेप के बाद से ही महिलाओं की सुरक्षा को लेकर बहस छिड़ी है। संकुचित दिमाग के कुछ लोग महिलाओं के काम करने को ही गलत ठहरा रहे हैं तो कुछ कह रहे हैं कि महिलाओं को नाईट शिफ्ट में काम नहीं करना चाहिए..! इसमें एक और नाम शामिल हो गया है...उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा का..! बहुगुणा साहब कहते हैं कि महिलाएं शाम 6 बजे बाद घर से न निकलें। बहुगुणा साहब के इतिहास पर नजर डालें तो ये पता चलता है कि नेता होने से पहले विजय बहुगुणा जज हुआ करते थे। जो व्यक्ति जज रह चुका होवो महिलाओं को लेकर अगर इस तरह की बयानबाजी करता होऐसी सोच रखता हो कि महिलाओं को डर कर घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए तो निश्चित ही ऐसी व्यक्ति की सोच और काबिलियत पर शक होता है। वैसे भी बहुगुणा साहब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री है और सिर्फ महिलाओं की नहीं पूरे प्रदेश के हर एक शख्स की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी उनके कंधे पर है, लेकिन वे महिलाओं को सुरक्षा मुहैया उपलब्ध कराने की बजाएउत्तराखंड में भयमुक्त वातावरण बनाने की बजाए महिलाओं को ही घर से बाहर न निकलने की नसीहत देते दिखाई दे रहे हैं। बहुगुणा साहब का ये बयान न सिर्फ उनकी संकुचित सोच को बयां करता है बल्कि ये भी साबित करता है कि उत्तराखंड की बहुगुणा सरकार प्रदेशवासियों को खासकर महिलाओं को सुरक्षा मुहैया कराने में नाकाम साबित हो रही है। शायद यही वजह है कि एक प्रदेश के मुख्यमंत्री को ऐसे बोल बोलने पड़ रहे हैं। वो भी एक ऐसे प्रदेश में जिसे देव भूमि माना जाता है और अन्य प्रदेशों की तुलना में उत्तराखंड में अपराध का ग्राफ भी बहुत ऊंचा नहीं है। यहां भी अगर सरकार महिलाओं को सुरक्षा मुहैया कराने में नामाक साबित हो रही है, प्रदेश में भय मुक्त वातावरण बनाने में नाकाम साबित हो रही है तो धिक्कार है ऐसी सरकार पर। बात यहीं तक रहती तो ठीक थी...प्रदेश की एक महिला मंत्री अमृता रावत तो अपने मुख्यमंत्री से दो कदम आगे ही निकल गई। ये कहती हैं कि महिलाओं को नाईट शिफ्ट में काम नहीं करना चाहिए और महिलाएं घर के कामकाज में ध्यान दें। आपको जानकर हैरानी होगी कि ये उत्तराखंड की महिला सशक्तीकरण मंत्री हैं जिनके कंधे पर महिलाओं को सशक्त करने की जिम्मेदारी भी है। अब आप समझ सकते हैं कि ये महिला मंत्री अपनी जिम्मेदारी कितनी संजीदगी से निभा रही होंगी जब ये महिला होकर महिलाओं के प्रति ऐसी सोच रखती हैं। प्रदेश में अपराधियों पर लगाम कसने में बहुगुणा सरकार नाकाम है, एक भय मुक्त वातावरण बनाने में सरकार नाकाम है और सजा भुगतें यहां की महिलाएं...घर में कैद होकर, घर से बाहर न निकल कर, अपनी आजादी को दबाकर, अपने सपनों को छिपाकर, अपनी उम्मीदों का गला घोंटकर। वाह मुख्यमंत्री साहब वाह...महिलाओं को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन नहीं दे सकते न सही, सुरक्षा नहीं दे सकते तो न सही...कम से कम उनकी आजादी पर तो ग्रहण मत लगाइए। अपराधियों पर तो अपका बस चलता नहीं तो महिलाओं को ही नसीहत देकर अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश कर ली। अरे साहब आप तो जज रहे हो वर्तमान में प्रदेश के मुखिया हो आपसे तो कम से कम ये उम्मीद नहीं थी...ये सब बोलने से पहले अपने पद और गरिमा का ही ख्याल रख लेते। उम्मीद करते हैं आप भविष्य में अपनी कुर्सी के साथ ही प्रदेश की महिलाओं का मान रखेंगे और अगली बार कुछ बोलकर नहीं कुछ ऐसा करके दिखाएंगे जिससे लोग आपकी थू-थू करने की बजाए आपकी तारीफ करें।

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