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शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

ठीक कहा प्रधानमंत्री जी...पैसे पेड़ पर नहीं लगते


सरकार से ममता की विदाई के बीच सरकार के फैसलों पर सफाई देने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दूरदर्शन में रात आठ बजे प्रकट हुए...तो लोगों को बड़ी उम्मीद थी कि शायद मौनी बाबा की उपाधि पा चुके मनमोहन सिंह का मौन टूटेगा तो शायद वे जनता की हक की बात करेंगे...हिंदी से परहेज करने वाले हमारे प्रधानमंत्री ने हिंदी में बोलना शुरू किया तो ये उम्मीदें और ज्यादा बढ़ गयीं...लेकिन प्रधानमंत्री का संबोधन एक प्रधानमंत्री का संबोधन न होकर कांग्रेस का घोषणापत्र सरीखा समझ में आया। प्रधानमंत्री सिर्फ वही बोले...जो लगातार पिछले कुछ दिनों सरकार के मंत्री महंगाई और एफडीआई पर सरकार के फैसले के बचाव में बोल रहे थे। प्रधानमंत्री के संबोधन में इतना नया जरूर था कि प्रधानमंत्री ने लोगों का सामान्य ज्ञान ये कहकर बढ़ा दिया कि पैसे पेड़ पर नहीं लगते...अरे मनमोहन सिंह साहब आपने तो जनता के मुंह की बात छीन ली...बढ़ती महंगाई से परेशान जनता यही तो आपको बताने की कोशिश कर रही है कि पैसे पेड़ पर नहीं लगते...इसलिए महंगाई पर काबू करो। पैसे पेड़ पर लगते तो आपको महंगाई बढ़ाने से कौन रोक रहा था...फिर तो आप बस बढ़ाए जाओ...लेकिन साहब ये पैसे एक आम आदमी...एक गरीब आदमी बड़ी मेहनत से कमाता है...मामूली सी कमाई में उसे सारे खर्च वहन करने होते हैं...देश की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा सिर्फ इतना ही पैसा रोज कमा पाता है कि किसी तरह दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो सके...ऐसे में आप इस चीज का जवाब दे दीजिए...कि आपके इन फैसलों से देश की इस बड़ी आबादी को क्या लाभ होगा। क्या इन्हें नौकरी मिल पाएगी…? क्या ये लोग बड़े बड़े स्टोर से सामान खरीदने की हिम्मत जुटा पाएंगे...? क्या वाकई में इनतो किफायती दरों में वस्तुएं उपलब्ध हो पाएंगे। इस बारे में भी जरूर सोचिएगा...जब आप देश हित में फैसले लेते हैं तो इन फैसलों से ऐसे लोगों को कितना फायदा होगा...ये शायद आप नहीं सोचते...एक अर्थशास्त्री भी होने के नाते आपके तर्क...आपके फैसले बिल्कुल सही हो सकते हैं...लेकिन क्या वास्तव में ये फैसले आखिरी पंक्ति में खड़े व्यक्ति का विकास कर पाएगी...ये जरूर सोचिएगा। माना आपके फैसलों से देश का आर्थिक विकास होगा...लेकिन क्या ये विकास रोजी रोटी के जुगाड़ में दिन गुजार देने वाले लोगों को विकास कर पाएगा। एफडीआई की बात करें तो निश्चित तौर पर वाहन, बीमा और टेलीकॉम के क्षेत्र में एफडीआई के अच्छे नतीजे रहे हैं...लेकिन यहां बड़ा सवाल ये भी खड़ा होता है कि आखिर ये फैसले लेने के लिए आपने यही वक्त क्यों चुना जब सरकार पहले से ही एक लाख 86 हजार करोड़ रूपए के कोयला घोटाले के आरोपों से घिरी थी। क्या ये सिर्फ कोयला घोटाले पर मचे बवाल को शांत करने की रणनीति थी। खैर इन आरोपों पर आपके पास देश के खराब आर्थिक हालात जैसे कई तर्क मौजूद हैं...जो आपने दिए भी हैं...लेकिन दूरदर्शन पर जनता को दूर से दर्शन देकर आपने जो सफाई दी है...वो तो कम से कम गले नहीं उतर रही है...उम्मीद करते हैं आपका ये मौन सिर्फ सरकार के फैसलों के बचाव में ही न टूटे बल्कि उनके सामने भी टूटे जिनके बैठने के लिए आप प्रधानमंत्री होने के बावजूद अपनी कुर्सी छोड़ देते हैं...जिनकी हामी के बिना आप कोई फैसला नहीं ले पाते...हमने तो कुछ ऐसा ही सुना है...अब यहां किसका जिक्र हो रहा है...ये भी अगर लिखना पड़े तो फिर तो पढ़ने वालों के सामान्य ज्ञान पर शक करने जैसा होगा।

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बुधवार, 19 सितंबर 2012

मंजिलें अपनी जगह...रास्ते अपनी जगह


जिस चुनावी विकल्प को देने के ऐलान के साथ जंतर मंतर पर अगस्त के पहले सप्ताह में टीम अन्ना ने अपना अनशन समाप्त किया था...उसी के चलते करीब डेढ़ साल तक भ्रष्टाचार के खिलाफ...लोकपाल के समर्थन में मुहिम चलाने वाले अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के रास्ते अलग हो गए। एक मंजिल की तरफ बढ़ रहा काफिला दो अलग अलग रास्तों पर निकल पड़ा...और इसके साथ ही अलग अलग हो गए अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के रास्ते। अन्ना ने टीम के टूटने पर दुख जताते हुए तल्ख तेवरों में ये भी कहा कि कोई भी राजनीति में उनके नाम और तस्वीर का इस्तेमाल न करे। हालांकि इसके संकेत दिल्ली में हुई बैठक से एक दिन पहले ही मिल गए थे...जब पुणे में अन्ना ने रास्ते अलग अलग होने की बात कही थी...साथ ही अन्ना ये भी कहने से नहीं चूके थे...कि राजनीति में लोग स्वार्थ के लिए आते हैं...और मैं कभी न तो राजनीतिक दल का गठन करूंगा और न ही राजनीति में कदम रखूंगा। अन्ना ने जनलोकपाल के लिए अपने आंदोलन को पूर्व की तरह जारी रखने की बात कही है तो केजरीवाल ने राजनीतिक दल गठन करने का फैसला लिया है...जिसने दोनों के रास्ते अलग करने की नींव भी रखी है। अब बड़ा सवाल ये है कि दो रास्ते जो एक मंजिल की तरफ जा रहे हैं...उन दोनों ही रास्तों से मंजिल तक पहुंचना कितना आसान है। अरविंद केजरीवाल की अगर बात करें तो इनके चुने रास्ते से मंजिल तक जल्दी पहुंचने का आभास तो होता है...लेकिन असल में ये रेगिस्तान में नजर आने वाली वो मरीचिका की तरह है जो मुसाफिर को पास ही मे पानी होने का आभास तो कराती है...लेकिन वास्तव में वो आंखों का धोखा ही होता है। इस रास्ते से गुजरने के लिए खुद को रेतीले तूफान का भी सामना करना पड़ता है...जिससे अगर नहीं बच पाए तो ये न सिर्फ रास्तों को मिटा देता है बल्कि मुसाफिर को ही लील जाता है। वैसे भी इस रास्ते को चुनने के साथ ही अन्ना ने केजरीवाल से किनारा कर लिया...किरण बेदी औऱ केजरीवाल के बीच पहले ही मतभेद जाहिर हो गए थे...ऐसे में किरण बेदी उनके साथ इस रास्ते को चुनेंगी इसकी उम्मीद भी नहीं है। यानि कि जैसे ही आंदोलन में राजनीति ने प्रवेश किया वैसे ही आंदोलन को लीड कर रही टीम बिखर गई...ऐसे में आने वाले दिनों में दूसरे सहयोगियों का भी केजरीवाल से किनारा करने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। यानि की इस रास्ते में केजरीवाल जैसे जैसे आगे बढ़ेंगे उनके साथ ईमानदार सहयोगियों का बने रहने की संभावना बहुत कम है...ऐसे में कैसे केजरीवाल ईमानदार औऱ स्वच्छ छवि के लोगों को साथ लेकर मंजिल तक पहुंच पाएंगे...ये बड़ा सवाल है। अरविंद के राजनीतिक दल गठन करने के पीछे की एक वजह शायद ये भी हो सकती है कि कहीं न कहीं अरविंद को लगता होगा कि आंदोलन के रास्ते अन्ना ने अपना पूरा जीवन भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में लगा दिया...और अन्ना ने कई भ्रष्ट अधिकारियों और मंत्रियों को कुर्सी छोड़ने पर मजबूर भी कर दिया...लेकिन इसके बाद भी भ्रष्टाचार कम होने की बजाए बढ़ा ही है...ऐसे में वे भी अगर आंदोलन के ही रास्ते अपनी लड़ाई को जारी रखेंगे तो शायद इसमें सालों लग जाएंगे...ऐसे में क्यों न राजनीति के रास्ते संसद में पहुंचा जाए...ताकि संसद में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल के समर्थन में आवाज़ बुलंद किया जा सके। केजरीवाल को शायद ये भी लगता होगा कि आज के समय में जब युवा नौकरी के लिए कुछ भी करने को तैयार है...तो उनके ऐशो आराम की सरकारी नौकरी छोड़ने का असर युवाओं पर पड़े और देश की युवा शक्ति राजनीति के रास्ते पर उनका साथ दे...तो क्यों न राजनीतिक दल का गठन किया जाए और इस रास्ते पर आगे बढ़ा जाए। ये एक वजह में से एक हो सकती है...लेकिन असल वजह जो भी हो रास्ता तो अब केजरीवाल ने चुन ही लिया है...ऐसे में देखते हैं ये रास्ता केजरीवाल को कहां लेकर जाता है। अन्ना हजारे की जहां तक बात है अन्ना ने राजनीती के रास्ते की बजाए अपने उसी रास्ते पर आगे बढ़ने का संकल्प दोहराया है...जिस पर वे सालों से चलते आ रहे थे...निश्चित तौर पर अन्ना को इस बात का आभास होगा कि अगर वे राजनीति के दलदल में जाएंगे तो कीचड़ उन पर भी उछलेगा...जो उनकी लड़ाई को अंजाम तक पहुंचने में बाधक हो सकता है। सवाल ये भी है कि क्या खुद को अपने अहम सहयोगियों से अलग करने के बाद एक बार फिर से जनलोकपाल की मांग को लेकर अन्ना अपना आंदोलन उस रूप तक...उस मुकाम तक ले जा पाएंगे...जो सरकार को प्रभावी जनलोकपाल लाने पर विवश कर दे।
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रविवार, 16 सितंबर 2012

शिंदे के बोल और मनमोहन की खामोशी


हमारे देश को गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे साहब कहते हैं कि बोफोर्स घोटाले की तरह जनता एक लाख 86 हजार करोड़ के कोयला घोटाले को बी भूल जाएगी...और जिनके हाथ काले हैं वो फिर से सफेद हो जाएंगे। शिंदे साहब इसमें ये भी जोड़ते हैं कि जनता की याददाश्त बहुत कोमजोर होती है...हालांकि कोयला घोटाले पर सरकार को घेर रही भाजपा ने बोफोर्स कांड के बाद 1989 के चुनाव नतीजों की याद दिलाकर कांग्रेस पर हमला बोला है...लेकिन बड़ा सवाल ये है कि जैसा शिंदे ने इस बयान पर बवाल होते देख अपनी सफाई दी है कि उन्होंने तो मजाक में ये सब कहा था...क्या वाकई में ये शिंदे का मजाकिया बयान था या फिर ये उनके दिल की बात थी जो जुबां पर आ ही गयी। शिंदे साहब आप की बात मान भी ली जाए तो भी ऐसे समय में जब आपकी सरकार के मुखिया पर गंभीर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हों...तो क्या आपको ये मजाक शोभा देता है...गृहमंत्री जैसी महत्वपूर्ण कुर्सी पर बैठकर ऐसा बयान देना आपको शोभा देता है...जनता की याददाश्त पर सवाल उठाना वो भी अपनी गलतियों के लिए क्या ये आपको शोभा देता है। चलिए आपने मजाक में ही कहा...लेकिन कहीं न कहीं ये बात आपके दिल में रही होगी तभी तो जुबां पर भी आयी...मजाकिया अंदाज में ही सही। कहीं न कहीं आपके क्या...आपकी सरकार...आपकी पार्टी...आपके साथी नेताओं से इस तरह की आपकी बात होती होगी...तभी तो आपने ये सब बयां किया। वैसे आपकी इस बात से तो मैं भी सहमत हूं कि जनता की याददाश्त बहुत कमजोर होती है...ये बात सच भी है...वरना बार बार भ्रष्टाचार करने के बाद शायद नेता चुनाव न जीतते और मंत्री न बन पाते। वैसे भी ये मानव स्वभाव है कि किसी भी चीज का असर हमारे दिमाग पर 24 से 48 घंटे तक रहता है...और उसके बाद हम चीजों को भूलने लगते हैं। उदाहरण ही देख लें....हम सड़क पर कोई भीषण दुर्घटना देखते हैं तो अगले 24 से 48 घंटे तक खुद संभल कर गाड़ी चलाते हैं...लेकिन उसके बाद फिर उसी ढ़र्रे पर आ जाते हैं...और ये सिलसिला चलता रहता है। शिंदे जी जनता की याददाश्त कमजोर न होती तो शायद आप जैसे नेता दोबारा विधायक, सांसद या मंत्री नहीं बन पाते...क्योंकि आपको कुर्सी तक पहुंचने से रोकने के लिए आपके इस तरह के गैर जिम्मेदाराना बयान ही काफी हैं...जिसे बयां करने में आपको तो शर्म नहीं आती..लेकिन जनता का सिर शर्म से झुक जाता है...कि ये कहने वाला व्यक्ति बहुत ही महत्वपूर्ण कुर्सी पर बैठा हमारे देश का गृहमंत्री है। खैर इन चीजों से आपको फर्क नहीं पड़ता क्योंकि आप तो जनता की कमजोरी जानते हैं कि कुछ भी करो...कुछ भी बोलो...चुनाव तक तो जनता सब भूल जाएगी। वैसे हिंदुस्तान की जनता के बारे में आपका सामान्य ज्ञान कमजोर लगता है...इस विषय में आपका सामान्य ज्ञान बढ़ाना चाहूंगा कि माना जनता जल्दी चीजों को भूल जाती है...लेकिन ये मत भूलिएगा कि जब जब जनता ने ठाना है...तो अच्छे अच्छों को सत्ता से बेदखल करके ही दम लिया है। 1977 और 1989 के चुनाव के नतीजे तो आपको याद ही होंगे...जब जनता ने अपनी इस ताकत को दिखा दिया था कि वो अगर ठान ले तो सत्ता किसी के बाप की जागीर नहीं है...और ऐसे लोगों को सत्ता में रहने का कोई अधिकार नहीं है। जनता अगर आपको सत्ता तक पहुंचा सकती है तो सत्ता से बेदखल भी कर सकती है...इसलिए जब भी बोलें तो जरा संभल कर...वरना चुप ही रहें...अच्छा न बोल सकें...देश के विकास की बातें न बोल सकें...जनकल्याण की बातें न बोल सकें...तो अपनी सरकार के मुखिया से ही कुछ सीख ले लें...वो करतें कुछ भी हों...लेकिन रहते खामोश ही हैं।

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